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अथ छहो संवर द्वार प्रारंभ ॥६॥
दोहा. आश्रवको अधिकार यह, कह्या जथावत् जेम । अब संवर वर्णन करूं, सुनहु भविक धरि प्रेम ॥१॥ अब संवर द्वारके आदिमें ज्ञानकू नमस्कार करे है ॥ ३१ सा.
आतमको अहित अध्यातम रहित ऐसो, आश्रव महातम अखंड अंडवत है । ताको विसतार गिलिवेकों परगट भयो, ब्रह्मडको विकाश ब्रह्ममंडवत है ।। जामें सत्र रूप जो सबमें सब रूपसों पै, सबनिसों अलिप्त आकाश खंडवत है ॥ सोहै ज्ञानभान शुद्ध संवरको भेष धरे, ताकी रुचि रेखको हमारे दंडवत् है ॥ २ ॥
' अव ज्ञानसे जड़ और चेतनका भेद समझे तथा संवर है . . तिस ज्ञानकी महिमा कहे है ॥ २३ सा. • शुद्ध सुछंद अभेद अवाधित, भेद विज्ञान सु तीछन आरा ॥
अंतर भेद स्वभाव विभाव, करे जड़ चेतन रूप दुफारा ॥ सो जिन्हके उरमें उपज्यो, न रुचे तिन्हको परसंग सहारा ।। आतमको अनुभौ करि ते; हरखे परखे परमातम धारा ॥ ३ ॥
अब सम्यक्तके सामर्थ्यते सम्यग्ज्ञानकी अर आत्मस्व. रूपकी प्राप्ति होय है सो कहे है ॥ २३ सा. . जो कबहूं यह जीव पदारथ, औसर पाय मिथ्यात मिटावे ॥ . सम्यक् धार प्रवाह वहे गुण, ज्ञान उदै मुख ऊरध धावे ॥