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(३२)
अथ पुन्यपाप एकत्व करण चतुर्थद्वार प्रारंभ ॥४॥
कर्ता क्रिया कर्मको, प्रगट बखान्यो मूल।
अब वरनौं अधिकार यह, पापपुन्य समतूल ॥१॥ पापपुण्य द्वारविप्रथम ज्ञानरूप चंद्रके कलाकूनमस्कार करे है।कवित्त. .: जाके उदै होत घट अंतर, विनसे मोह महा तम रोक || शुभ अर अशुभ करमकी दुविधा, मिटे सहन दीसे इक थोक ॥ जाकी कला होत संपूरण, प्रति भासे सव लोक अलोक ॥ सो प्रतिबोध शशि निरखि, बनारसिं सीस नमाइ देत पंग धोक ॥ २॥ . . मोहते शुभ अर अशुभ कर्मकी द्विधा दीखे है सो एकरूप .
दिखावे है । सवैया ३१ सा.. .. . जैसे काहु चंडाली जुगल पुत्र जने तिन, एका दीयो वामनकू एक घर राख्यो है । बामन कहायो तिन मद्य मांस त्याग कीनो, चांडाल कहायो तिन मद्यमांस चाख्यो है ॥ तैसे एक वेदनी करमके जुगल 'पुत्र, एक पाप एक पुन्य नाम भिन्न भाख्यो है । दुहूं माहि दोर धूप दोऊ ।' कर्म बंध रूप, याते ज्ञानवंत कोउ नाहि अभिलाख्यो है ॥ ३ ॥ - गुरुने पाप अर पुन्यको समान कह्यो तिसं ऊपर शिष्य
प्रश्न करे है ॥ चौपाईः . . . . . . . कोउ शिष्य कहे गुरु पाही । पाप पुन्य दोऊ सम नाहीं॥ कारणरस स्वभावं फल न्यारो । एक आनिष्ट लगे इक प्यारो ॥ ४ ॥ शिष्य पापपुन्यके कारण, रस, स्वभाव, अर फल, जुद
जुदे कहे है ॥ सवैया ३१ सा. संकलेश परिणामनिसा पाप बंध होय, विशुद्धसा पुन्य बंध हेतु भेद