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(१२९) . • वानी लीन भयो जग डोले वानी ममता त्यागि न बोल ॥ है अनादि वानी जगमांही । कुकावे बात यह समुझे नाही।।१४॥
३१ सा--जैसे काहुँ देशमें सलिल धारा कारंजकी, नदीसों निक्रसि फिर नदीमें समानी है ॥ नगरमें ठोर ठोर फैली रहि चहुं ओर । नाके ढिग वहे सोई कहे मेरा पानी है ।। त्योंहि घट सदन सदनमें अनादि ब्रह्म, वदन वदनमें अनादिहीकी वानी है ॥ करम कलोलसों उसासकी वयारि वाजे, तासों कहे मेरी धुनि ऐसी मूढ प्राणी है ॥ १५ ॥
ऐसे हैं कुकवि कुधी, गहे मृषा पथ दोर । रहे मगन अभिमानमें, कहे औरकी और ॥ १६ ॥ वस्तु स्वरूप लेखे नहीं, बाहिज दृष्टि प्रमान। . मृषा विलास विलोकिके, करे मृषा गुण गान ॥ १७ ॥
३१ सा-मांसकी गरथि कुच कंचन कलश कहे, कहे मुख चंद जो सलेषमाको धरु है | हाड़के सदन यांहि हीरा मोती कहे तांहि, कांसके अधर ऊठ कहे विव फरु है ।। हाड दंड भुना कहे कोल नाल काम क्षुधा, हाडहीके थंभा जंघा कहे रंभा तरु है ॥ योंही झूठी जुगति वनावे औ कहावे कवि, येते पर कहे हमे शारदाको वर है ॥ १८ ॥
चौ०-मिथ्यामति कुकवि जे प्राणी। मिथ्या तिनकी भाषित वाणी ॥ मिथ्यामति सुकवि जो होई । वचन प्रमाण करे सब कोई ॥ १९॥ वचन प्रमाण करे सुकवि, पुरुष हिये परमान। .. . . दोऊ अंग प्रमाण जो, सोहे सहज सुजान ॥२०॥