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(१२६ ) जरा खेद पर स्वेद; नांहि मद वैर विषै रति । चिंता नांहि सनेह नाहि.) जहां प्यास न भूख न । थिर समाधि सुख, रहित अठारह दूषण ॥ १०६ ॥ ___ वानी जहां निरक्षरी, सप्त धातु मल नाहि । केश रोम नख नहि वढे, परम औदारिक माहि, परम औदारिक माहि, जहां इंद्रिय विकार नसि । यथाख्यान चारित्र प्रधान थिर शुकल ध्यान ससि । लोकाऽलोक प्रकाश, करन केवल रजधानी । सो तेरम गुणस्थान, जहां अतिशयमय वानी । १.०६ ।
यह संयोग गुणथानकी, रचना कही अनूप । . अव अयोग केवल दशा, कहूं यथारथरूप ॥ १०८॥
जहां काहूं जीवकों असाता उदै साता नांहि, काहूंको असाता नाहि, साता उदै पाईये । मन वच कायासों अतीत भयो जहां जीव, जाको जस गीत जग जीत रूप गाईये ।। जामें कर्म प्रकृतीकी सत्ता जोगि जिनकीसी, अंतकाल द्वै समैमें सकल खपाईये ॥ जाकी थिति पंच लघु अक्षर प्रमाण सोइ, चौदहो अयोगी गुणठाना ठहराईये ॥ १०९ ॥ . चौदह गुणस्थानक दशा, जगवासी जिय भूल ।. . आश्रव संवर भाव द्वै, बंध मोक्षको मूल ॥ ११०॥
चौ०-आश्रव संवर परणति जोलों । जगवासी चेतन है तोलों ॥
आश्रव संवर विधी व्यवहारा।दोऊ भवपथ शिवपथ धारा॥१११॥ . ... आश्रवरूप बंध उतपाता । संवर ज्ञान मोक्ष पद दाता ॥ ...
जो. संवरसों आश्रव छीने । ताको नमस्कार अब कीने ॥ १११ ॥