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________________ (१००) आतम दरव है || याहीते स्वच्छंद भयो डोले मुखहू न बोले, कहे या जगतमें हमारोही परव है ॥ तासों ज्ञाता कहे जीव जगतसों भिन्न है पे जगसों विकाशी तोहि याहीते गरव है । जो वस्तु सो वस्तु पररूपसा निराली सदा, निचे प्रमाण स्यादवादमें सरव है ॥ १४ ॥ कोउ पशु ज्ञानकी अनंत विचित्रता देखि ज्ञेयको आकार नानारूप विसतप्यो है ॥ ताहिको विचारी कहे ज्ञानकी अनेक सत्ता, गहिके एकांत पक्ष लोकनिसो लयो है ॥ ताको भ्रम भंजिवेकों ज्ञानवंत कहे ज्ञान, अगम अगाध निराबाध रस भन्यो है ॥ ज्ञायक स्वभाव परयायतों अनेक भयो, यद्यपि तथापि एकतासों नहिं टप्यो है ॥ १९ ॥. • - को कुधी कहे ज्ञानमाहि ज्ञेयको आकार, प्रति भासि रह्यो है कलंक ताहि धोइये || जब ध्यान जलसों पखारिके धवलं कीजे, तव निराक शुद्ध ज्ञानमई होईये ॥ तासों स्यादवादी कहे ज्ञानको स्वभाव यहै। ज्ञेयको आकार वस्तु मांहि कहां खोइये ।। जैसे नानारूप प्रतिबिंबकी झलक दीखे, यद्यपि तथापि आरसी विमल जोइये ॥ १६ ॥ कोउ अज्ञ कहे ज्ञेयाकार ज्ञान परिणाम, जोलों विद्यमान तोलों ज्ञान, परगट है ॥ ज्ञेयके विनाश होत ज्ञानको विनाश होय, ऐसी वाके मिथ्यातकी अटल है ॥ तासुं समकितवंत कहे अनुभौ कहानि, प्रमाण ज्ञान नानाकार नंट है । निरविकल्प अविनश्वर दर ज्ञेय वस्तुसों अव्यापक अघंट है ॥ १७ ॥ कोउ मंद कहे धर्म अधर्म आकाश काल, पुदगल जीव सब मेरो, जगमें ॥ जानेना मरम निज माने आपा पर वस्तु, बांधे दृढ़ करम धरम खोवें S
SR No.010588
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages134
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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