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________________ समय॥२९॥ est ROSENHORA SUGUSESSEGUEGUAREG पाणी न्यारो न्यारो होय दीखे है । तैसे सम्यक्तीके सत्यार्थ श्रद्धानरूप दृष्टी है, तिसमें जीव न्यारा , कर्मन्यारा अर देहन्यारा दीखे है । अर सम्यक्ती जब शुद्ध चेतनके अनुभवका अभ्यास करे है, तव एक आत्मद्रव्य अचल दीसे है और सब नाशवंत भासे है दूजा कोऊ सार नहि दीसे है। पूर्व संचित किये कर्म जे है ते उदय आय दिखाई देय है परंतु आप कर्मको कर्त्ता नहीं होय है, तिस उदया आये कर्मका तमासा देखे है ॥ १५॥ | ॥ अव जीव अर पुद्गल एकमेक हो रहे है तिसको जुदा कैसे जानना सो कहे है । सवैया ३१॥ जैसे उषणोदकमें उदक खभाव सीत, आगकी उपणता फरस ज्ञान लखिये ॥ जैसे स्वाद व्यंजनमें दीसत विविधरूप, लोणको सुवाद खारो जीभ ज्ञान चखिये ॥ तैसे घट पिंडमें विभावता अज्ञानरूप, ज्ञानरूप जीव भेद ज्ञानसो परखिये ॥ भरमसों करमको करता है चिदानंद, दरव विचार करतार नाम नखिये ॥ १६ ॥ ___ अर्थ-जैसे उष्ण जलमें जलका स्वभाव सीतल अर अग्निका स्वभाव गरम ये दोनही मिले है, परंतु तिसमें अग्निके गरमपणाका स्वभाव स्पर्श इंद्रियके ज्ञानते न्यारा जान्या जाय है। अथवा जैसे तरकारीमें लवणादिक नाना प्रकारके पदार्थका स्वाद मिला है, परंतु तिसमें लवणके क्षारपणाकार स्वभाव जिव्हा इंद्रियके ज्ञानते न्यारा जान्या जाय है । तैसे अज्ञानरूप घटपिंड अर जडरूप कर्मपिंड तथा ज्ञानरूप चेतन इनका मिलाप अनादि कालसे हो रहा है, तिसमें चेतनके ज्ञानपणाका स्वभाव ॥२९॥ भेदज्ञानसे न्यारा जान्या जाय है । ये चिदानंदकू कर्मका का मानना सों भ्रम हैं, अर आत्मद्रव्यका विचार करिये तो कर्त्ता ऐसा नामही इस जीवके नहीं है जीव तो ज्ञाताही है ॥ १६ ॥ A%AR-%%ARREARSAARE
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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