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॥ अव मिथ्यात्वी जीव कर्मको कर्त्ता माने है सो भ्रम है ते ऊपर दृष्टात कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥जैसे महा धूपके तपतिमें तिसाये मृग, भरमसें मिथ्याजल पीवनेकों धायो है ।।
जैसे अंधकार मांहि जेवरी निरखी नर, भरमसों डरपि सरप मानि आयो है ॥ 81 अपने खभाव जैसे सागर है थिर सदा, पवन संयोगसों उछरि आकुलायो है ।
तैसे जीव जडसों अव्यापक सहज रूप, भरमसों करमको करता कहायो है ॥ १४ ॥
अर्थ-जैसे मृग उष्णकालमें धूपके सख्त गरमीसे तृषातूर होय है, अर मृगजलकू देखि ताक्रूर तलावका जलमानि भरमसें पीवनेकू दौडे है । अथवा जैसे अंधारेमें कोऊ मनुष्य दोरीकू देखे है, अर | ता; सर्पमानि भरमसे भयभीत होय भागे है । अथवा जैसे समुद्र अपने स्वभावतेही सदा स्थिर है, परंतु पवनके संयोगसे उछले है । तैसेही ( ऊपरके तीन दृष्टांत समान ) जीव निश्चयते देखिये तो अपने
स्वभावतेही जडमें अव्यापक ( नहि व्यापे ) है, परंतु अनादि कालके सहजरूपी मिथ्यात्व भ्रमसे ६ कर्मको कर्त्ता कहे है ॥ १४ ॥
॥ अव सम्यक्त्वी भेदज्ञानते कर्मके कर्ताका भ्रम दूर करे है ते ऊपर दृष्टांत ॥ सवैया ३१ सा ॥
जैसे राजहंसके बदनके सपरसत, देखिये प्रगट न्यारो क्षीर न्यारो नीर है। Pi तैसे समकितीके सुदृष्टिमें सहज रूप, न्यारो जीव न्यारो कर्म न्यारोही शरीर है॥
जब शुद्ध चेतनके अनुभौ अभ्यासें तव, भासे आप अचल न दूजो और सीर है ॥
पूरव करम उदै आइके दिखाई देइ, करता न होइ तिन्हको तमासगीर है ॥ १५॥ अर्थ-जैसे राजहंस पक्षीकी चूंच आम्ल स्वभावकी है, ताते तिनके स्पर्श मानतेही दूध अर
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