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________________ नही । अर जब दोऊ तरफ चिराक सजी आय पडदो दूरकरे है, तब सभाके सकल लोक दृष्टीते तिस 5 जापात्राकाररूप श्रृंगार वगैरेकी शोभा प्रत्यक्ष अवलोकन कर रीझे है। तैसे ज्ञानका समुद्र ऐसा जो आत्मा ६|| सो मिथ्यात्वरूप पडदेमें अनादिकालते छिप रह्या था सो काहू समयमें मिथ्यात्व विभावरूप पडदो दूरदाकरे है, अर निज स्वरूपको प्रगट होय तब ज्ञानसमुद्र परमात्मा त्रैलोक्यमें भर रहेगा ( ताके आत्मामें| त्रैलोक्य दर्पणवत् भासी रहेगा) सो जानना । अब गुरु कहे अहो जगतवासी जीव ? ऐसा पूर्वोक्त उपदेश सुनि, जगतके जालसे निकरि अपनी शुद्धताकी संभाल करना उचित है ॥ ३५ ॥ ॥ इति श्रीसमयसार नाटकको प्रथम जीवद्वार बालबोध सहित समाप्त भयो ॥१॥ सररररररर - -
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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