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समय
सार. अ०१२
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॥अथ श्रीसमयसार नाटकको बारमोसाध्य साधक द्वारप्रारंभ ॥१२॥
॥ अव साध्य अर साभिवे योग्य साधक पदका सिद्धांत कहे है ॥ दोहा ॥है साध्य शुद्ध केवल दशा, अथवा सिद्ध महंत । साधक अविरत आदि बुध, क्षीण मोह परयंत ॥१॥ ___ अर्थ केवलज्ञानी• अथवा सिद्धपरमेष्ठीकू, साध्यपद कहिये । अर चौथे अविरत गुणस्थानसे बारवे, क्षीणमोह गुणस्थान पर्यंत, नव गुणस्थानके धनी जे ज्ञानी है तिन सबळू साधकपद कहिये ॥ १॥
॥ अव अविरतादिक साधकपदका सिद्धांत कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ सोरठा ॥- ' __जाको आधो अपूरव अनिवृत्ति करणको, भयो लाभ हुई गुरु वचनकी बोहनी ॥ ___जाको अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ, अनादि मिथ्यात्व मिश्रसमकित मोहनी ॥ ___ सातों परकति क्षपि किंवा उमशमी जाके, जगि उर मांहि समकित कला सोहनी ॥
सोई मोक्ष साधक कहायो ताके सरवंग, प्रगटी शकति गुण स्थानक आरोहनी ॥२॥ है सो०-जाके मुक्ति समीप, भई भवस्थिति-घट गई।ताकी मनसा सीप, सुगुरु मेघ मुक्ता वचन ॥३॥ 2 अर्थ-जिस जीवकू अधो करण अपूर्व करण अर अनिवृत्ति करणका लाभ भया है अर सत्यगुरूका हूँ 5 उपदेश मिला है। ताते जिसकू अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, अर लोभ, तथा अनादि मिथ्यात्व 8 मोहनी, मिश्रमोहनी, सम्यक् प्रकृति मोहनी, इन सात प्रकृतीका क्षय अथवा उपशम होके, हृदयमें ६ शोभनीक सम्यक्तकी कला जागी है। सोई सम्यक्तीजीव मोक्ष मार्गको साधनारो साधक कहावे है, हूँ तिसके अंतर अर बाह्य' सर्व अंगमें गुणस्थान चढनेकी शक्ति प्राप्त होय है॥२॥
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