SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 427
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय- सार. ॥९३॥ HRESTERTAINEERR ७७-RS - अज्ञानपणा है तबतक जीव कर्मका कर्ता है, अर जब सुमती आवे तब सदा अकर्ता है। जिसके हृदयमें भेदज्ञान जग्या है जवसे, सो तो कर्मबंधसे निराला है ॥ २७ ॥ __॥ अव वौद्धमतका विचार कहे है ॥ दोहा ।वोद्ध क्षणिकवादी कहे, क्षणभंगुर तनु मांहि । प्रथम समय जो जीव है, द्वितिय समयमें नाहि॥ ॐ ताते मेरे मतविषं, करे करम जो कोई । सो न भोगवे सर्वथा, और भोगता होई ॥ २९ ॥६ है अर्थ-बौद्ध क्षणिकवादी कहेकी, शरीरमें जीव क्षणभर रहे है सदा रहे नहि । शरीरमें प्रथम समयमें जो जीव है सो दुसरे समयमें नहि रहे, दुसरे समयमें दुसरा जीव आवे है ॥ २८ ॥ ताते जो जीव कर्म करे सो सर्वथा उस कर्मका फल भोगवे नही । उसका फल दुसरा जीव भोगवे है मेरे है • बौद्धमतका विचार है ॥ २९॥ ॥ अव चौद्धमतका एकांत विचार दूर करने• जिनमती दृष्टांत कहे है ॥ दोहा ॥यह एकंत मिथ्यात पख, दूर करनके काज । चिदिलास अविचल कथा भाषेश्रीजिनराज ॥३०॥ S बालपन काहू पुरुष, देखे पुरकइ कोइ । तरुण भये फिरके लखे, कहे नगर यह सोइ ॥३१॥ ८ जो दुहु पनमें एक थो, तो तिहि सुमरण कीया और पुरुषको अनुभव्यो, और न जाने जीय ॥३२॥ हूँ जब यह वचन प्रगट सुन्यो, सुन्यो जैनमत शुद्ध । तव इकांतवादी पुरुष, जैनभयोप्रति बुद्ध ॥३३॥ है अर्थ-यह बौद्ध मतका एकांत क्षणभंगूर पक्ष दूर करनेके आर्थे । श्रीजिनराज आत्माका * स्थिरपणा दृष्टांतते कहे है ॥ ३०॥ कोईने बालपणमें एक नगर देख्यो । फेर तरुणपणामें वोही नगर देख्यो तब बालपणमें देख्या नगरका स्मरण होवे है ॥ ३१ ॥ जो बाल अर तरुण ये दोनुं अवस्थामें SKoka-30-36 ९३॥ RESOREIGREKASER
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy