SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय ॥ १६ ॥ भाव अनंत भये प्रतिबिंबित, जीवन मोक्षदशा ठहरानी ॥ ते नर दर्पण जो अविकार, रहे थिररूप सदा सुख दानी ॥ २२ ॥ अर्थ - अब भेदज्ञानसे आत्मअनुभव होय अर मुक्ति मिले सो परमार्थ कहे है — कोईक जीव तो आपना पद ( निरालंबन स्वरूप ) आप संभारिके, आप ग्रंथी भेद करि आपके स्वरूपको आप पहिचाने है । अर कोईक जीव गुरुके मुखते अनेकांत सिद्धांत जिनवाणी सुनी आपके स्वरूपको पहिचाने है, इस प्रकारे जिसको स्व परका भेदज्ञान जाग्रत भया है तिसको स्व ज्ञानकी कलारूप राजधानी ( ईश्वरसत्ता ) प्राप्त भयी । तिस ज्ञानरूप राजधानीमें अनंत भाव अर पदार्थ प्रतिबिंबित होय है । ( सब पदार्थका ज्ञायक ठहरा ) तातै सो भेदज्ञानीजीव जीवन ( संसार ) अवस्थामें मोक्ष स्वरूपी है । भेदज्ञानमें स्व अर परके अनंत भाव प्रतिबिंबित होय है तोपण भेदज्ञानी समलरूप होय नहीं जैसे आरसीमें अनेक पदार्थ प्रतिबिंबित होय है परंतु तिस पदार्थके गुण अवगुणको सो आरसी ग्रहण नहिकरें है, विकार रहित स्थिर रहे है, तैसे भेदज्ञानी सदा स्थिररूप सुखी रहे है ॥ २२ ॥ ॥ अव भेदज्ञान प्रशंसा कथन ॥ सवैया ३१ सा ॥ याही वर्तमानसमै भव्यनको मिव्योमोह, लग्यो है अनादिको पग्यो है कर्ममलसो ॥ उदैकरे भेदज्ञान महा रुचिको निधान, ऊरको उजारो भारो न्यारो दुंद दलसो ॥ जाते थिर रहे अनुभौ विलास गहे फिरि, कबहूं अपना यौ न कहे पुदगलसो ॥ यह करतुति यो जुदाइ करे जगतसो, पावक ज्यो भिन्नकरे कंचन उपलसो ॥ २३ ॥ अर्थ - इस वर्तमान कालमें भव्यजीवोंका मोहभ्रम मिटजावो, ये मोहकर्म अनादि कालसे आत्मा के सार अ० १ ॥१६॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy