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॥ अब विषयके अरुचि विना चारित्रका वल निष्फल है सो कहे है ॥ सवैया २३ सा ॥ - जो नर सम्यवंत कहावत, सम्यक्ज्ञान कला नहि जागी ॥ आतम अंग अबंध विचारत, धारत संग कहे हम त्यागी ॥ भेष धरे मुनिराज पटंतर, अंतर मोह महा नल दागी ॥ सून्य हिये करतूत करे परि, सो सठ जीव न होय विरागी ॥ ७ ॥
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अर्थ — जो मनुष्य आपकूं सम्यक्ती कहावे है, पण तिसकूं सम्यक्तका अर ज्ञानका गुण प्राप्तही हुवा नही है । मनुष्य निश्चय नयका पक्ष ग्रहण करि आपकूं अबंध ( बंध रहित ) माने है, अर | देहादिक पर वस्तू में ममत्व राखे है अर कहे है हम त्यागि है । मुनिराज समान् भेषहूं धारण करे है, पण अंतरंग में मोहरूप महा अग्नि धगधगी रही है । सो जीव हृदय सून्य ( ज्ञान रहित ) हुवा | मुनिराज समान क्रिया करे है, तथापि तो मूढ विषयसे वैरागी नहि होय है ताते तिनकूं द्रव्यलिंगी ||मुनीही कहीये है ॥ ७ ॥
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॥ अव भेदज्ञान विना समस्त क्रिया ( चारित्र ) असार है सो कहे है ॥ सवैया २३ सा ॥ग्रंथ रचे चरचे शुभ पंथ, लखे जगमें विवहार सुपत्ता ॥ साधि संतोष अधि निरंजन, देइ सुशीख न लेइ अदत्ता ॥ नंग धरंग फिरे तजि संग, छके सरवंग मुधा रस मत्ता ॥ ए करतूति करे सठ पैं, समुझे न अनातम आतम सत्ता ॥ ८ ॥ अर्थ- ग्रंथकी रचना करे धर्मकी चरचा करे अर शुभ अशुभ क्रियाकूंहूं जान है, तथा जगतमें