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________________ a समय ॥ ४५ ॥ अर्थ- जो कबहूं यह जीव काललब्धि पाय द्रव्य मिध्यात्वकं अर भाव मिध्यात्वकं मिटावै है तथा सम्यक्तरूप जलकी धारा प्रवाहरूप वहे है तब ज्ञान गुण उदय ( प्राप्त ) होय उर्ध्व लोक (मुक्ति) के सन्मुख गमन करे है । तिस ज्ञानके प्रभाव करि अभ्यंतर द्रव्यकर्मके अर भावकर्मके क्लेशका प्रवेश नहि होय है । ताते आत्माकी शुद्धि होनेका साधन समभाव धारण कर आत्मानुभवका अभ्यास करे है तब आत्म स्वरूपकी परिपूर्ण प्राप्ति होय परब्रह्म कहावे है ॥ ४ ॥ ॥ अब संवरका कारण सम्यक्त्व है ताते सम्यकदृष्टिकी महिमा कहे हैं ॥ २३ सा ॥भेदि मिथ्यात्वसु वेदि महा रस, भेद विज्ञान कला जिनि पाई ॥ जो अपनी महिमा अवधारत, त्याग करे उरसों जु पराई ॥ उद्धत रीत वसे जिनिके घट होत निरंतर ज्योति सवाई ॥ ते मतिमान सुवर्ण समान्, लगे तिनकों न शुभाशुभ काई ॥ ५ ॥ अर्थ —जो मिथ्यात्वकूं नाश करके उपशमके महारसके उदयते भेदज्ञान कलाकूं प्राप्त हुवा है। अर जो भेदज्ञानतें आत्मखरूपकी प्राप्ति करके ज्ञान दर्शन अर चारित्ररूप महिमाकूं धारण करे है तथा हृदयमेंसे देहादिकके ममताका त्याग करे है । अर देशत्रत तथा महात्रत संयमत्रत उंची क्रिया स्फुरायमान् होय निरंतर तप करके आत्मज्ञान ज्योति सवाई प्रगट हुई है । सो भेदज्ञानी जीव सुवर्ण समान् निःकलंक है तिनको शुभ अर अशुभ कर्मका कलंक काई नहि लगे है ताते सहज संवर होय है ॥५॥ ॥ अब भेदज्ञान है सो संवरको तथा मोक्षको कारण है ताते भेदज्ञानकी महिमा कहे है | अडिल ॥ भेदज्ञान संवर निदान निरदोप है । संवर सो निरजरा अनुक्रम मोक्ष है || सार. अ० ६ ॥ ४५ ॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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