________________
समय-
॥४३॥
अ०
LASHESENERASREKHitskrit
शक्ति अर गति सिथल होय है। अर जब मिथ्यात्व भावका उदय आवे है तब नाना प्रकार कर्मबंध - करे है, जैसे सर्पके उपरका मंत्र निकालनेसे शक्ति अर गति फेर प्राप्त होय है तैसे जानना॥ १२ ॥
॥अब ज्ञानके शुद्धपणाकी प्रशंसा करे है ॥ दोहा - 5 यह निचोर या ग्रंथको, यहे परम रस पोख। तजे शुद्धनय वंध है, गहे शुद्धनय मोख ॥१३॥ र अर्थ-इस समयसार नाटक ग्रंथका येही रहस्य (भावार्थ) है अर येही उत्कृष्ट रसका पुष्ट * करनेवाला है की । जो शुद्ध नयकी रीत छोडे तो बंध है अर शुद्ध नयकी रीत ग्रहण करे । है तो मोक्ष है ॥ १३ ॥
॥ अव जीवके बाह्य विलास अर अंतर विलास वतावे है ॥ सवैया ३१ सा॥करमके चक्रमें फिरत जगवासी जीव, व्है रह्यो वहिरमुख व्यापत विषमता ॥ * अंतर सुमति आई विमल वडाई पाई, पुद्गलसों प्रीति टूठी छूटी माया ममता ॥
शुद्धनै निवास कीनो अनुभौ अभ्यास लीनो भ्रमभाव छांडि दीनो भीनोचित्त समता॥ अनादि अनंत अविकलप अचल ऐसो, पद अवलंवि अवलोके राम रमता ॥ १४ ॥ , अर्थ त्रैलोक्यमें कर्मरूप चक्र (शैन्य ) फिरे हैं तिसमें जगवासी जीव पण फिर रह्यो है, ताते है बहिर्मुख (बाह्य देह विषय भोगके सुख दुखका ग्राहक ) होय अंतर दृष्टीसे आत्माका स्वरूप न जाण्यो अर कहां इष्ट संयोग तथा कहां अनिष्ट संयोग इनसे जीवमें विषमता (अशुद्धता ) व्याप्त हुई है। अर जब अंतरंगमें सुमति आय आत्मस्वरूपके निर्मल प्रभुताकुं प्राप्त होय है, तब देहकी। प्रीति तुटे है तथा राग द्वेप छूटे है। जैसा शुद्ध नयसे आत्म स्वरूप कह्या तैसा आत्मस्वरूपमें उपयोग
॥४३॥