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________________ समय ॥ ४२ ॥ अर्थ — जो हितरूप परिणाम सो राग (प्रीति) है अर जो अहितरूप परिणाम सो विरोध (द्वेष) है । पर पदार्थमें आत्मपणाका भ्रमरूप परिणाम सो मोह है अर राग द्वेष तथा मोहमल रहित निर्मल परिणाम ते सम्यक्ज्ञान है ॥ ८ ॥ ॥ अव राग द्वेष अर मोहका स्वरूप कहे है || दोहा ॥ - 1 राग विरोध विमोह मल, येई आश्रव मूल । येई कर्म बढाइके, करे धरमकी भूल ॥ ९ ॥ अर्थ — -राग द्वेष अर मोह है सो आत्माकूं मल ( दोष ) है अर ये दोष आश्रवका मूल है । अर येई आश्रव कर्मको बंधाइ करि धर्म (आत्मस्वरूप ) को भुलाइ देवे है ॥ ९ ॥ ॥ अव ज्ञाता निराश्रवी है सो कहे है ॥ दोहा ॥ - जहां न रागादिक दशा सो सम्यक् परिणाम । याते सम्यक्वंतको, कह्यो निराश्रव नाम ॥१०॥ अर्थ — जहां राग द्वेष अर मोह अवस्था नहि है सो सम्यक् परिणाम है । यातें सम्यक्वंतको निराश्रव नाम का है ॥ १० ॥ 1 ॥ अव ज्ञाता निराश्रवपणामें विलास करे है सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ - जे कोई निकट भव्य रासी जगवासी जीव, मिथ्यामत भेदि ज्ञान भाव परिणये हैं | जिन्हके सुदृष्टी न राग द्वेष मोह कहूं, विमल विलोकनिमें तीनूं जीति लये हैं ॥ तजि परमाद घट सोधि जे निरोधि जोग, शुद्ध उपयोगकी दशामें मिलि गये हैं ॥ तेई बंध पद्धति विडारि पर संग झारि, आपमें मगन है के आपरूप भये हैं ॥ ११ ॥ सार अ० ५ ॥ ४२ ॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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