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________________ | समस्त ज्ञानीकेहूं अज्ञानीके समान है ऐसा ज्ञानीका अर अज्ञानीका एकसार वर्तन देख । शिष्य गुरूकूं पूछे है हे स्वामी, सम्यक्तवंतकूं निराश्रवी आप कैसे कह्यां ॥ ६ ॥ ॥ अव शिष्य के प्रश्नकं गुरू उत्तर कहे है | सवैया ३१ सा ॥ - पूर्व अवस्था जे करम बंध कीने अब, तेई उदै आई नाना भांति रस देत हैं || केई शुभ सांता केई अशुभ असाता रूप, दुहूंमें न राग न विरोध समचेत हैं ॥ यथायोग्य क्रियाकरे फलकी न इच्छाधरे, जीवन मुकतिको बिरद गहि लेत हैं ॥ यातें ज्ञानवंतको न आश्रव कहत कोउ, मुद्धतासों न्यारे भये शुद्धता समेत हैं ॥ ७ ॥ अर्थ - पूर्व कालमें अज्ञान अवस्थाविषें जे जे कर्मबंध कीया होय, अब ते ते कर्म वर्तमान्। कालमें उदयकूं आय नाना प्रकार रस ( फल ) देवे है । तिसमें कित्येक कर्म शुभ है ते सुख देवे | है अर कित्येक कर्म अशुभ है ते दुःख देवे है, परंतु इन दोनूं जातके कर्ममें ज्ञानीकी प्रीति अर द्वेष | नहि है समान् चित्त राखे है । अर ज्ञानी अपने पदस्थ योग्य क्रिया करे है पण तिस क्रियाके फलकी इच्छा नहि धरे है, संसार में है तोहूं मुक्त जीवके समान् देहादिकतें अलिप्त रहे है ऐसा बिरद संभाले है । ताते ज्ञानवंतको तो कोऊही आश्रव कहे नही, अर ज्ञानवंत है सो मूढता रहित तथा आत्म | अनुभवकी शुद्धता सहित वर्ते है ॥ ७ ॥ ॥ अब राग द्वेप मोह अर ज्ञानका लक्षण कहे है ॥ दोहा ॥ जो हित भावसु राग है, अहित भाव विरोध । भ्रमभाव विमोह है, निर्मल भावसु बोध ||८||
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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