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समय॥११॥
सार. अ०१
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अनादि कालका है अर अनादिकाल रहेगा, जिसका नाश नहीं ऐसा अनंत तेजरूप पूर्णपद (मोक्षफल ) सहज तुरत प्राप्त होय है ॥ ५॥ . .
॥ अव निश्चय नय अर व्यवहार नय स्वरूप कथन ॥ सवैया २३ साज्यौ नर कोऊ गिरे गिरिसो तिहि, होइ हितू जु गहै दृढवाही ॥ त्यो बुधको विवहार भलो, तवलौ जवलौ सिव प्रापति नाही॥ यद्यपि यो परमाण तथापि, सधै परमारथ चेतन माही ॥
जीव अव्यापक है परसो, विवहारसु तो परकी परछाही ॥६॥ अर्थ-जैसे कोऊ मनुष्य पर्वतपरसे नीचे पडता होय, ताके बाहूकू जो दूसरा मनुष्य धरे अर ४ स्थीर करे ते तो उनका हीत करणार हे। तैसे ज्ञानीजनके जबतक मोक्षकी प्राप्ती नही है, तबतक व्यव8 हारनयही भलो है। चौथे गुणस्थानसे चौदवे गुणस्थान पर्यंत व्यवहार नयका ही अवलंबन श्रेष्ठ है। यद्यपि ये व्यवहारका अवलंबन प्रमाण है, तथापि परमार्थ ( सम्यक्दर्शन ज्ञान अर चारित्र ) का
शुद्धपना आत्मामें ही सधेगा, बाहिर नाही सधेगा। निश्चयसे जीवद्रव्य है सो परद्रव्यमें व्यापक नहीं । । स्वगुणमें व्यापक है अर व्यवहारसे जीवद्रव्य है सो कर्मादिक परद्रव्यके आश्रयते रहे है, परके आश्रयविना व्यवहार होयनही तातै व्यवहारनयते निश्चयनय शुद्ध है, शुद्धका साधक निश्चय नय है ॥६
॥ अव सम्यक्दर्शन स्वरूप व्यवस्था ॥ सवैया ३१ सा ॥शुद्धनय निहचै अकेला आप चिदानंद, आपनेही गुण परजायको गहत है। पूरण विज्ञानघन सो है व्यवहार माहि, नव तत्वरूपी पंच द्रव्यमें रहत है।
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