SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय ॥१४९॥ RESERRECENSESSIRESCRECRACREARC% ॥ अव ग्रंथ समाप्तीकी अंतिम प्रशस्ती ॥ चौपई ॥ दोहा ॥भयो ग्रंथ संपूरण भाखा । वरणी गुणस्थानककी शाखा ॥ वरणन और कहांलों कहिये । जथा शक्ति कही चुप व्है रहिये ॥ १ ॥ लहिए पार न ग्रंथ उदधिका।ज्योज्यों कहिये त्योसों अधिका॥ ताते नाटक अगम अपारा । अलप कवीसुरकी मतिधारा ॥ २॥ समयसार नाटक अकथ, कविकी मति लघु होय । ताते कहत वनारसी, पूरण कथै न कोय || ___॥ अव कवी अपनी लघुता कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥| जैसे कोउ एकाकी सुभट पराक्रम करि, जीते केहि भांति चक्री कटकसों लरनो ॥ जैसे कोउ परवीण तारूं भुज भारू नर, तिरे कैसे स्वयंभू रमण सिंधु तरनो॥ जैसे कोउ उद्यमी उछाह मन मांहि धरे, करे कैसे कारिज विधाता कोसो करनो॥ 8 तैसे तुच्छ मति मेरी तामें कविकला थोरि, नाटक अपार मैं कहांलों यांहि वरनो ॥ ४॥ ॥ अव जीव नटकी महिमा कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥है जैसे वट वृक्ष एक तामें फल है अनेक, फल फल वहु वीज वीज वीज वट है ॥ है वट मांहि फल फल मांहि वीज तामें वट, कीजे जो विचार तो अनंतता अघट है। - तैसे एक सत्तामें अनंत गुण परयाय, पर्यामें अनंत नृत्य तामेंऽनंत ठट है ॥ ठटमें अनंत कला कलामें अनंत रूप, रूपमें अनंत सत्ता ऐसो जीव नट है ॥ ५॥ ब्रह्मज्ञान आकाशमें, उडे सुमति खग होय । यथा शक्ति उद्यम करे, पारन पावे कोय ॥६॥ ॥१४९॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy