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________________ SHARE ORIGSHORE SEX AQUARIS ( ज्ञान दबि जाय तो समस्त जगत अंधेर है) अर राग द्वेष तथा मोहभाव वर्ते है सो मेरा स्वरूप || नही है । मेरा स्वरूप मेरेमें है ॥ ९९ ॥ ॥ अव सम्यग्दृष्टीका निर्वाचकपणा दिखावे है ॥ सवैया २३ सा॥सम्यकवंत कहे अपने गुण, मैं नित राग विरोधसों रीतो॥ मैं करतूति करूं निरवंछक, मो ये विषै रस लागत तीतो॥ शुद्ध खचेतनको अनुभौ करि, मैं जग मोह महा भट जीतो॥ मोक्ष सन्मूख भयो अब मो कहु, काल अनंत इही विधि वीतो॥ १०० ॥ अर्थ-सम्यक्दृष्टी अपने गुण कहे है की, मैं सदा राग अर द्वेष रहितहूं। मैं संसार संबंधी जो 5 | क्रिया करूंहूं सो निरवंछकपणाते करूंहूं, ताते मुजकू विषयके रस कडवा लागे है । मैं शुद्ध आत्माका 8 अनुभव करके, जगतका महा मोहरूप सुभट जीयो है। अर मोक्षके सन्मूख भयो है, अब मेरेकू इस प्रकार ( सम्यक्तपणामें ) अनंत काल वीतो ॥ १० ॥ | कहे विचक्षण मैं रहुं, सदा ज्ञान रस साचि।शुद्धातम अनुभूतिसों, खलित न होहु कदाचि ॥१०१॥ पूर्वकर्मविष तरु भये, उदै भोग फलफूल । मैं इनको नहि भोगता, सहज होहु निर्मूल ॥१०२॥ a अर्थ-भेदज्ञानी कहे है की मैं सदा ज्ञान रसमें रमि रहुंहूं । अर शुद्ध आत्मानुभवते कदापि नहि ढळूहूं ॥१०१॥ पूर्वकृतकर्म है ते विषवृक्ष है अर तिन कर्मका उदयरूप जो भोग उपभोग है सो फल फूल है । मैं इनकू भोगता नहीं है, मैं राग अर द्वेष रहितहूं तातै कर्मसे सहज निर्मूल होहूं ॥१०२॥ PERE CLOSEASING SEASE CEREREISTESSO
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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