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MR अर्थ-धरम जो. वस्तुका स्वभाव ताकू नहीजानत है अर भरमरूप जो मिथ्यात्वयुक्त
वचन कहेहैं अर ठौरठौर अपनें एकांत स्थापनकी पक्षपातके आर्थि लराई करेंहै। अर अभिमानमें अपना निजरूप भूलि पृथ्वीमें पग नहीं धारत है आपहीकू तत्वज्ञानी जाने है अर || हृदयमें ऐसाकुछ करना विचारे जाते उत्पात प्रगट होय, जिसमें उपद्रव प्रगट होजाय । कर्मरूप || कल्लोलनितें चतुर्गतिरूप संसार समुद्रमें कहां स्थिरता नहीपावता डामाडोल फिरे है, ऐसी है| अवस्था हो रहीहै जैसे पवनके बभूलेमें सूकापत्र आकाशमें उडता कहूं ठिकाणा नहीपावे । जाकी छाती जो हृदय सो रागद्वेषते वा क्रोधमानते तो तप्त है अर लोभके आधिक्यताते | मलीन है अर मायाचारते कुटिल है अर एकांत कहनेकू वाती है अर पापाचारते भारी है | |ऐसा ब्रह्म जो आत्मा ताका घात करनेवाला मिथ्यात्वीजीव महापातकी है ॥ ९ ॥ दोहा | वंदो सिवअवगाहना, अर वंदो सिवपंथ । जासुप्रसाद भाषाकरो, नाटकनाम गरंथ ॥ १० ॥ ___ अर्थ-शिव जो मुक्ति तिसमें जिन्हकी अवगाहना है तिनकू बंदना करूंहू, शिवका मार्ग जो रत्नत्रय तिसकू बंदना करूंहूं । जिन्हके प्रसादते नाटकनाम ग्रंथकी भापा करूं ॥ १० ॥ अब कवीवर्नन सवैया ॥ २३ सा ॥
.चेतनरूप अनूप . अमूरत, सिद्धसमान सदापद मेरो ॥ — मोह महातम' आतम अंग, कियो परसंग महा तम घेरो ।
ज्ञानकला उपजी अब मोहि, कहूं गुणनाटक आगम केरो॥ .. जासु प्रसाद सधे सिवमारग, वेगि मिटे घटवास वसेरो ॥ ११ ॥
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