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समय
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जाकै घटप्रगट विवेक गणधरकोसो, हिरदे हरख महा मोहको हरतु है । सांचासुखमाने निजमहिमा अडोलजानें, आपुहीमें आपनो स्वभावले धरतु है ॥ जैसे जलकर्दम, कुतकफल भिन्नकरे, तैसे जीवअजीव विलछन करतु है ॥
आतम सगतिसाधे ग्यानको उदोआराधे, सोई समकिती भवसागर तरतुहै॥॥ अर्थ-जाके घटविषे गणधरकासा विवेक प्रगट भया है अर हृदयमें जो आत्मानुभवते । ६ उपज्याहर्ष तिसकरी पर्यायमें राचनेरूप मोहकू हरे है । अर जो सत्यार्थ आत्मीक खाधीनसु| ख• सुख माने है, आपने ज्ञानादिक गुणनिकी महिमाकू अडोल अचल जाने है, अपना स्वभाव जो सम्यग्दर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्र ताहि पाई आपहीमें धारत है । जैसे । मिलेहुए जलकर्दमकू कतकफल भिन्नकरे तैसे जीवद्रव्य अर अजीवद्रव्य अनादिके मिलेहुए है ।
तिनकू भिन्नकरे है । आत्मीक शक्तीकी वृद्धिहोय तैसा साधन करे है अर जैसे ज्ञानका उदय । F होय तैसे आराधना करे है, सोही सम्यकदृष्टीजीव संसार समुद्रकू तिरे है ॥८॥ | अब मिथ्यादृष्टीका लक्षण कथन ॥ सवैया ३१ सा ॥
धरम न जानत. बखानत भरमरूप, ठौरठौर ठानत लराई पक्षपातकी ॥ भूल्यो अभिमानमें न पावधरे धरनीमें, हिरदेमें करनी विचारे उतपातकी॥
नाटक. फिरे डांबाडोलसो करमके कलोलनिमें, व्हैरही अवस्थाज्यूं बभूल्याकैसे पातकी॥ जाकीछाती तातीकारी कुटिल कुवातीभारी, ऐसो ब्रह्मघाती है मिथ्याती महापातकी ॥९॥
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