SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय॥७५॥ | अर क्षणमें अनंतरूप धरे है जैसे दधिका मथाणमें तक कोलाहल करे है । अथवा नटका फिराया थाल | वारहाट घडेकी माल वा नदीके जलमेंका भ्रमर वा कुंभारका चक्र जैसे भ्रमण करे - है । ऐसे म भ्रमण करे है सो जातकाही चंचल है अर अनादिकालका वक्र है, सो मन आज स्थीर कैसे होय ॥ ४९ ॥ ॥ अव मनका चंचलपणा स्थिर कैसे होयगा सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ धाय सदा काल पै न पायो कहुं साचो सुख, रूपसों विमुख दुख कूपवास वसा है ॥ धरमको घाती अधरमको संघाती महा, कुरापाति जाकी संनिपात कीसि दसा है ॥ मायाकों झपट गहे कायासों लपटि रहे, भूल्यो भ्रम भीरमें बहीर कोसो ससा है ॥ ऐसो मन चंचल पताका कोसो अंचल सु, ज्ञानके जगेसे निरवाण पंथ धसा है ॥५०॥ अर्थ —- यह मन सुखके वास्ते सदाकाल दौडता फिरे है पण साचो सुख कहांहूं न मिले है, | अपने आत्मरूपसे पराङ्मुख होय भोगके आकुलतारूप कूपमें बसे है । अर धर्मका घाती है तथा अधर्म के संघाती है, ऐसे महा कुरापाती है जिसकी दशा तो कोई मनुष्य शनिपात तापत शुद्धि होय है तैसी है । कपटकूं अर इच्छाकूं झट ग्रहण करे है तथा देहके ममतामें लपट रहे है, अर भ्रमजालमें पडके भूल्यो है जैसे शीकारी लोकके भीडते शुसा जनावर आय जालमें पडे है अर भ्रमतो फिरे है । ऐसे यह मन चंचल है सो पताकाके छेडासमान क्षणभरभी स्थीर नहि रहे है, परंतु जब सम्यक्ज्ञान जाग्रत होय है तब मोक्षमार्गमें प्रवेश करै है ॥ ५० ॥ ॥ अव मन स्थिर करनेका उपाय कहे है ॥ दोहा ॥जो मन विषय कषाय में, वरते चंचल सोइ । जो मन ध्यान विचारसों, रुकेसु अविचल होइ ॥ ५१॥ सार अ० ८ ॥७५॥
SR No.010586
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Pandit, Nana Ramchandra
PublisherBanarsidas Pandit
Publication Year
Total Pages548
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy