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चार शब्द
आज आठ वर्ष बाद सत्यनारायण हिन्दी जनता तथा अपने मित्रो के सम्मुख फिर उपस्थित है । वही जीवनचरित सफलता पूर्वक लिखा हुआ कहा जा सकता है जो चरितनायक को ज्यो का त्यो-उसकी सजीव मूर्ति के रूप मे-पाठको के सम्मुख उपस्थित कर दे। इस कसौटी पर यह पुस्तक ठीक उतरती है या नहीं, इसका निर्णय तो विज्ञ समालोचक ही कर सकते है। मैं अपनी ओर से तो केवल इतना कहूँगा कि जो कार्य मैने अपने ऊपर लिया था वह आसान नही था। सत्यनारायणजी को स्वप्न मे भी इस बात की सम्भावना न थी कि उनकी मृत्यु के पीछे उनका चरित लिखा जाएगा, और इसलिये उन्होने अपने विषय को कुछ सामग्री भी संग्रह न की थी। अतएव मेरी कठिनाई और भी बढ़ गई । उनकी चिट्ठियो और उनमे सम्बन्ध रखनेवाली छोटी-छोटी बातो के लिये मुझे घंटो परिश्रम करना पड़ा, बीसियों पत्र लिखने पड़े और महीनो खुशामद करनी पड़ी, आज यह बात मै अभिमानपूर्वक किन्तु नम्रता से कह सकता हूँ कि जितना अच्छा संग्रह सत्यनारायण के जीवन के विषय में हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के सग्रहालय में सुरक्षित है उतना अच्छा सग्रह शायद ही किसी हिन्दीलेखक के विषय में सुरक्षित हो । यह जीवनचरित, जैसा कुछ है, आपके सामने है। ____ "तुमने सत्यनारायण को व्यर्थ ही इतना बढ़ा दिया है । वे इतने बड़े तो थे नहीं जितना तुमने उन्हे दिखलाया है " यह बात उन महानुभावो के मुंह में सुनकर जो सत्यनारायण के मित्र होने का दावा करते है, मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रहती । सत्यनारक्षिण इतनी उच्च कोटि के