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प० सत्यनारायण कविरत्न
बड़े अभिमान से कहा--'महाराज, नाम तौ सत्यनारायन कौई भयौ। वैसे काव्य तो हमने मिलि-मिलि केई करी ही। आधी वाकी है, आधी मेरी।" मुझे हँसी आगई और मैने कहा---"क्या आप भी कविता करते थे ?" वह जाट बोला---"अरे महाराज, हम का करते, सरसुती करती ! सत्यनारायन ने बाइस जगह अपनी किताबन मे मेरे नामकी छाप रक्खी है।"
बात यह थी कि सत्यनारायणजी अपनी कविता प्राय गेदालाल को सुनाया करते थे। कभी किसी ग्रामीण शब्द का अर्थ भी पूछ लेते थे। एक बार 'ढपान' शब्द का अर्थ उन्होने पूछा था । बस इसीसे गेदालालजी भी अपने को "कविरत्न" समझने लगे है । हाँ, यह ठाकुर साहब की नम्रता है कि वे इस कीर्ति को स्वयं न लेकर अपनी 'सरसुती' को अर्पित करते है ? अस्तु, मैंने कहा--"अब मुझे--सत्यनारायणजी के स्थानो को दिखलाइए।" एक आदमी मेरे साथ हो लिया। उसने एक कोठरी को दिखलाकर कहा--"यह सत्यनारायण की कोठरी है। इसी मे माता के साथ वे रहते थे।" मैने सोचा क्या इसी में बैठकर, माता की मृत्यु के बाद, उन्होंने वह पद्य बनाया था
"जो मै जानतु ऐसी माता सेवा करत बनाई,
हाय हाय कहा करु मात तुव टहल नही कर पाई !" मन्दिर की छतपर जाकर मैने वह अटारी देखी जहाँ बैठकर सत्यनारायण काग़ज-पेसिल लिये हुए कविता किया करते थे। सामने अनेक वृक्षो के सुन्दर-सुन्दर पत्ते दीख पड़ते थे । यही बैठकर सत्यनारायण ने लिखा था
"सीतल प्रभात बात खात हरखात गात
धोये-धोये पातनु की बात ही निराली है !" कोठरी के सामने की छत पर पत्थर की दो पटियां बिछी हुई थी। हरियाली ही हरियाली दीख पड़ती थी ! सामने प्रेमपूर्ण कविता का । साक्षात्स्वरूप-ताजबीबी का रोना-दिखाई देता था। कवि की प्रतिभा