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पं० सत्यनारायण कविरत्न
मुझमे कुछ पहले ही खेल देखने पहुंच गये और चार आने का टिकट लिया। मैंने आठ आने का टिकट लिया; पर चार आने और आठ आने के स्थान मे कुछ अन्तर न था। दोनो स्थान एक-से थे। उसपर भट्टजी ने स्वर्गीय बाबू बालमुकुन्द गुप्त के इस पद्य के आधार पर
'बढ़े दिल की क्यो कर न अब बेकरारी।
जो मर जाय यो भैंस लाला तुम्हारी ।" यह कविता पढी--
"बढ़े दिल को क्योकर न अब बेकरारी।
जो यो खर्च होवे चजन्नी हमारी । भट्टजी की इस कविता पर बड़ी हँसी आई । खेल समाप्त हो जाने पर भंट्टजी ने मेरा परिचय सत्यनारायणजी से कराया। साथ ही उन्होने ऊपर वाला वाक्य पढा । इसके पीछे चवन्नी अधिक खर्च हो जाने के विषय में सत्यनारायणजी ने भी कुछ कपिता की थी जो पूरी आज तक मेरे देखने मे नहीं आई । उसका एकाध पद्य पण्डित बदरीनाथजी भट्ट ने मुझे सुनाया था और मुझसे कहा था-"पूरी कविता सुनाई जायगी तो आप नाराज हो जॉयगे।" बस उस दिन से ही मेरी सत्यनारायणजी से मित्रता हुई। आगरे मे रहते समय वे प्रायः मुझमे मिला करते थे। "आर्यमित्र" छोड़ने के बाद मै बिहार प्रान्त के पुराने अखबार "बिहार-बन्धु" में चला गया। वहाँ से मेरा-सत्यनारायणजी का पत्र-व्यवहार नहीं हुआ। हाँ, भट्टजी प्रायः अपने पत्र मे कोई न कोई बात सत्यनारायणजी के विषय मे लिखा करते थे और उसमे राममूर्ति के तमाशे में चवन्नी अधिक खर्च हो जाने की चर्चा प्रायः रहती थी।
१९०८ से लेकर सन् १९१० के दिसम्बर तक सत्यनारायणजी से मेरी भेंट नहीं हुई। सन् १९१० में प्रयाग में बहुत भारी प्रदर्शनी हुई और साथ ही कांग्रेस का अधिवेशन भी हुआ। मै बांकीपुर से काग्रेस और