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________________ १९४ पं० सत्यनारायण कविरत्न समझाते हुए उनकी इस अवस्था को प्रायः "श्मशान-वैराग्य' लिखा था । इसके उत्तर मे पंडितजी ने एक बार लिखा था--'संभव है हमारा यह वैराग्य श्मशान में ही समाप्त हो'। मुझे खेद है कि इस अवसर पर मैं उनसे बहुत दूर था और भट्टजी भी प्रयाग मे थे, इसलिये हम लोग पडितजी के विचारों को पूर्णतया जानने में असमर्थ रहे । पत्रो मे उन्होने इस विषय पर स्पष्टतया कुछ नही लिखा । इस विषय मे उनकी भाषा साकेतिक तथा मामिक हुआ करती थी जिसका गूढ अर्थ समझना मेरे लिये प्राय असम्भव था। इन पत्रो से यह अवश्य भासित होता था कि उनके हृदय पर किसी प्रकार का रंज है । पर कई बार लिखने पर भी मै इस रहस्य का उद्घाटन नहीं कर सका। सत्यनारायणजी जहाँ अपने मुग्धकारी गुणो द्वारा जन साधारण के श्रद्धाभाजन और प्रिय थे वहाँ उनके साथ ही उनकी कविता के माधुय्यं और लालित्य ने भी उन्हे इस कीर्ति के प्राप्त करने में कम सहायता नहीं दी थी। सम्भव है कि मेरा लिखना इस विषय मे पक्षपातपूर्ण समझा जाय पर मै यह लिखे बिना नहीं रह सकता कि हिन्दी के वर्तमान कवियों में स्वाभाविक कवि होने का गौरव उन्हे ही प्राप्त था। सर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के आगरे पधारने के अवसर पर जो कविता पंडितजी ने लिखी थी और उसे सुनकर कबीन्द्र रवीन्द्र ने जिन शब्दो द्वारा पडितजी की रचना की प्रशंसा की थी वे शब्द किसी भी कवि के हृदय में गुदगुदी पैदा कर देते--और खासकर ऐसे अवसर पर, जब कि वे एक जगद्विख्यात कवि के हृदय से निकले हों। कविरत्नजी ब्रजभाषा मे ही कविता नही करते थे, पर खड़ी बोली में भी लिखा करते थे। उनकी कविता में वह रस मौजूद है जिसे पढ़कर प्रत्येक कविता-प्रेमी के हृदय में उनके लिये श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है और उनके काव्य का मनन करने पर वह श्रद्धा बढ़ती ही जाती है। पंडितजी का काव्य सर्वथा निर्दोष न होने पर भी उच्च कोटि का है । खेद है कि उनके सब बड़े ग्रन्थ अनुवाद-ग्रंथ है । पर तो भी इस त्रुटि तथा परिमित अवस्था
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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