________________
( १५ ) का सुन्दर सुयोग पाकर रसवृष्टि से सबको शराबोर कर दिया--- यमुना तट पर व्रजभाषा सुरसरी की हिलोर में सबको डुबो दिया। कहा करते थे, वैसा आनन्द कविता-पाठ में फिर नही आया।
हिन्दी-साहित्य की निःस्वार्थ सेवा और व्रजभाषा की कविता का प्रचार, लोकरुचि को उसकी ओर आकृष्ट करना, ब्रज-कोकिल सत्यनारायण के जीवन का मुख्य उद्देश था । उन्होने भिन्न भाषाभाषी अनेक प्रसिद्ध पुरुषों के अभिनन्दन मे जो प्रशस्तियाँ लिखी है उनमें प्रशस्तिपात्रों से यही अपील की है:--
"जैसी करी कृतारथ तुम अग्रेजी भाषा। तिमि हिन्दी-उपकार करहुगे ऐसी आशा ॥"
(कवीन्द्र रवीन्द्र के अभिनन्दन मे) "नित ध्यान रहे तव हृदय मे ईशचरन-अरविन्द को। प्रिय सजन, मित्र, निज छात्रजन हिन्दी हिन्दू हिन्द को ॥"
-(डाब्सन साहब के अभिनन्दन मे) स्वामी रामतीर्थजी के वे इसलिये भी अनन्यभक्त थे कि उन्हें "प्रजभाषा-भक्त भक्ति-रस रुचिर रसाबन" समझते थे। (अपने समय के महापुरुषों में सबसे अधिक भक्ति उनकी स्वामी रामतीर्थजी मे ही थी। स्वामीजी भी सत्यनारायणजी के गुणों पर मुग्ध थे। उन्हे अपने साथ अमेरिका ले जाने के लिये बहुत आग्रह करते रहे, पर सत्यनारायणजी अपने गुरु की बीमारी के कारण न जा सके, और इसका सत्यनारायणजी को सदा पश्चात्ताप रहा)। अस्तु, सत्यनारायण, सभा-सोसाइटियों में भी इसी उद्देश मे, कष्ट उठाकर सम्मिलित होते थे, जैसा कि उन्होंने एक बार अपने एक मित्र से कहा था
"मैं तो अजभाषा को पुकार ले के जरूर जाऊँगो" और कछू नॉय तो ब्रजभाषासुरसरी को हिलोर में सब को भिवार्य तो आऊँगो!