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________________ सत्यनारायणजी की कुछ स्मृतियाँ १८५ आपको समय मिले तो इस कविता का हिन्दी-अनुवाद कर दे । पंडितजी ने बड़े प्रेम से कहा कि मै इसके अनुवाद करने की यथाशक्ति चेष्टा करूँगा। मैंने आपको वह पुस्तक दे दी और पूर्ण आशा थी कि पंडितजी उसका थोडे काल मे ही अच्छा छन्दोबद्ध अनुवाद करके हिन्दी-साहित्य के भण्डार की बृद्धि करेगे; पर दैव से किसी का वश नही है । पडितजी का शरीर ही नही रहा!" श्रीयुत जगन्नायप्रसाद शुक्ल, आयुर्वेद-पंचानन सम्पादक-सुधानिधि (प्रयाग) “पण्डित सत्यनारायणजी का मेरा प्रथम परिचय कदाचित् सवत् १९६७ मे हुआ था। पडित केदारनाथ भट्ट यहॉ बी० ए० को परीक्षा देने आये थे, सत्यनारायणजी भी उन्ही के साथ थे। उस समय वे कदाचित एफ० ए० मे पढते थे। उनके सादे वेष को देखकर मुझे अनुमान भी नहीं हुआ कि ये अग्रेजी पढते अथवा जानते होगे। केदारनाथजी ने आपका परिचय कराया और आपने भी अपना "भ्रमरदूत" और कुछ स्फुट कविताएं सुनाकर आल्हादित किया । तभी से उनके साथ मेरा मैत्रीभाव और स्नेह-सम्बन्ध दृढ हो गया। इसके बाद एक बार वे अकेले उसी वर्ष मे मिले । उस समय मै मकान के ऊपरी भाग में था। यह दोहा लिखकर आपने अपने आगमन की सूचना दी। "निरत नागरी नेह रत, रसिकन ढिंग विश्राम । आयो हौ तव मिलन को सत्यनरायन नाम ॥" प्रयाग मे द्वितीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के समय वे प्रयाग पधारे और अपने साथी मित्रो के अनुरोध से उन्होने सम्मेलन के सम्बन्ध मे पिछली रात मे ही कुछ कविता तैयार की थी। दूसरे सम्मेलन के कार्यकर्ताओ ने उसे पढा न था और न पढ सकने का अवसर था । कविता पेसिल से काटकूट के साथ ऐसी लिखी हुई थी कि वे ही उसे पढ सकते थे। इसीलिये सम्मेलन के कुछ कार्यकर्ता उसे पढने देने पर सहमत न थे, क्योकि उस समय
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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