________________
१८३
सत्यनारायणजी की कुछ स्मृतियाँ अनुवाद करके मुझे सुनाया भी था जो किसी प्रकार न्यून न था। तब हमने उनसे निवेदन किया कि जिसका एक अनुवाद हो चुका है उसमें श्रम न करके मेकाले के Lays of ancient Rome का अनुवाद कीजिये। सत्यनारायणजी ने यह संकल्प ठाना और उसे पूर्ण भी किया। वह इस समय एफ० ए० में पढ़ते थे और मेकाले की 'हारेशस' नामक पुस्तक उनके पद्य-प्रकरणों में थी। उसी का अनुवाद उन्होंने किया था। उनके संस्कृत के कोर्स में कालिदास का रघुवंश भी था । उसके द्वितीय सर्ग के कुछ पद्यों का अनुवाद उन्होंने मुझे सुनाया था जो अच्छा था। "श्यामाय मानानि वनानि पश्यन" वाले श्लोक का अनुवाद जो उन्होंने किया था, ठीक न था। उसपर मैंने तीन आलोचना की। तब उन्होंने दूसरे प्रकार से यथार्थ अनुवाद किया। x x एक पुस्तक मैंने लिखी थी जिसका नाम था 'कामिनी क्रन्दन' उसकी इस पंक्ति पर वह बहुत प्रसन्न हुए थे
___रूपवती, पर्वतो, सती युवती एक नागर।
नेहनटी पतिहटी, लठी, झटपटी मिटी मर ॥" इसमें एक पंक्ति का अनुवाद उक्त कवि ने इस प्रकार किया था
"का तोऊ सों अधिक होति, उर ज्वाल हमारे ।" सत्यनारायणजी के अवसान पर क्या कहा जाय ! "बारा अलम में उगा था,
कोई नरवले उम्मेद । और यास ने काट दिया,
फूलने-फलने न दिया ॥" स्वर्गीय पं० मन्नन द्विवेदी गजपुरी “मेरा सत्यनारायणजी का परिचय पहले पहल सन् १९०६ में हुआ था। एक दिन जब मैं प्रयाग में था, घूम कर, सायंकाल के समय, गृह पर आया तो निम्नलिखित शब्द एक स्किप पर लिखे हुए मिले