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________________ ૬૨ २ -- बहुस्थावरघात ( जिन के खाने में स्थावर जीवों का बात हो ) ३ - प्रमादक ( प्रमाद बढाने वाले ) ४ - अनिष्ट ( शरीर को इष्ट न हों ) : - अनुपसेव्य ( नेवन करने लायक न हो ) ५ -- बंध-कारण १ - मिध्यात्व ( विपरीतादि ) २ -- अविरति ( छहकाय के जीवों की हिंसा करना-मन को व ५ इन्द्रियों को वश न करना ) ३----प्रमाद् ( शुद्ध आत्मानुभव से डिगना ) ४ - कषाय ( जो आत्मा का दुखड़े ) ५ - योग ( मन-वचन काय की प्रवृत्ति ) ५ - निग्रन्थ dxptiong १ - पुलाक ( उत्तर गुणों की भावना रहित - मूल गुणों में भी कभी दोष आवे ) २ -- वकुश ( मुल गुण परिपुर्ण होंय परंतु शरीर उपकरणादिकी शोभा ने की इच्छा हो ' ) ३- कुशील ( मूल व उत्तर गुणांका पूर्णता - कदाचित् उत्तर गुणों में दोष आवे ) --- -निर्ग्रन्थ ( जिस मुनि के मोहनीय कर्म के उदय का अभाव होय ) ५ - स्नातक केवली भगवान.
SR No.010583
Book TitleJain Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddhasen Jain Gpyaliya
PublisherSiddhasen Jain Gpyaliya
Publication Year
Total Pages78
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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