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| ओ३म् ॥
"हम श्रार्य हैं"
ओ३म् इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम || अपनन्तोऽराव्णः |
सज्जनों !
कर
नाना मत-मतान्तरों
के
पवित्र मण्डे तले
सदियों से परतन्त्रता
भगवान दयानन्द का कोटिशः धन्यवाद है कि जिसने हम को अधिकार से निकाल, विद्यारूपी सूर्य का दर्शन कराया। धर्म के नाम पर प्रचलित मिथ्याडम्बरो को दूर धर्म के शुभ्र स्वरूप को हमारे सम्मुख उपस्थित किया । में विभक्त हुई आर्यजाति को वैदिक धर्म लाने का आजीवन भरसक प्रयत्न किया । की बेड़ियों में जकड़े हुए हम भारतीयों को स्वन्त्रता का पाठ पढ़ाया। नाना जाति उपजाति आदि विभागों में विभक्त होकर गाढ़ निद्रा में सोई हुई आर्यजाति के सामने एकता, प्रेम और संगठन का बिगुल बजाया । अहर्निश हाने वाले विधर्मियों के श्रक्रमणों से मरणोन्मुख हुई आयेजाति को "शुद्धि" रूपी संजीवनी पिला उसमे पुनः नव चैतन्य का संचार किया । इस सब प्रकार स गिर चुके थे, भगवान् दयानन्द ने से हमें अधःपतन से ऊपर उठा, उन्नति के
अपनी अपार कृपा शिखर पर आरूढ़