SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 45199614545454545454545454545457455 जी बने। सत्य यह है कि उन्होंने अपने जीवन को प्राप्त ही इस दिन के लिए किया था। साधना के मध्य चमत्कारों का उन्होंने कभी आह्वान नहीं । किया, चमत्कार करने वाले तत्त्व ही उनकी सेवा में सदा उपस्थित रहते हैं। नित्य नये चमत्कार सुनने में आते हैं, पर आश्चर्य नहीं होता क्योंकि जैन साध के जीवन में ऐसी तो घटनाएँ नित्य-प्रति होनी स्वाभाविक है ही। यह साधना-पथ के मानों सहयात्री हैं। मार्च ८८ में मुनि दीक्षा लेकर प्रथम वर्षायोग सागर (म.प्र.) में हुआ। कुछ महीनों तक संघ में साथ रहने के पश्चात् आचार्यश्री की स्वीकृति लेकर संघ से अलग होकर उत्तरप्रदेश की ओर मुड़ गए। यहाँ के छोटे-छोटे गाँवों में आपने विहार किया और नवयुवकों में अपूर्व धार्मिक श्रद्धा उत्पन्न की। देवदर्शन और रात्रि-भोजन-त्याग के नियम से न जाने कितने युवक-युवती सहजता से ही बंध गए। उत्तर प्रदेश के खेकड़ा, बिनौली, सरधना, बुढ़ाना, शाहपुर में विद्वत् गोष्ठियां हुईं । आचार्य कुन्दकुन्द द्वि सहस्राब्दी वर्ष को सफल बनाने में सक्रिय योगदान दिया। सरधना में पू. गुरु 1008 आचार्य श्री सुमति सागर जी ने आपको उपाध्याय पद समाज के कई हजार धर्मप्रेमियों, विद्वानों, श्रीमन्तों के मध्य प्रदान किया। सत्य यह भी है कि पूज्य श्री 108 ज्ञानसागर जी 'पद' आदि से सर्वथा विरक्त हैं। आपके पावन-पवित्र व्यक्तित्व का - विलक्षण एवं प्रभावशाली प्रभाव चरणागत को सदा के लिए अनुयायी बना लेता है। प्रवचन-शैली में समागत विषयों की सामयिक प्रासंगिकता, सहज. सुबोध भाषा, विशदता एवं प्रस्तुतीकरण के ही कारण श्रोताओं की भीड़ इतनी प बढ़ जाती है कि एक गाँव से दूसरे गाँव विहार हआ नहीं कि प्रवचन के समय सभी वहाँ उपस्थित । वाणी का यह अदभत प्रभाव ही है कि श्रोताओं की जीवनशैली आश्चर्यजनक रूप से परिवर्तित हो गई है। उत्तरप्रदेश से बिहार की ओर विहार कर प्रथम चातुर्मास श्री सम्मेद शिखर जी में हुआ। आपका पुण्य एवं साधना वहाँ भी प्रभावी एवं चर्चित हुई। । पूरे चातुर्मास में श्रावकों की तन, मन, धन से की गई भक्ति देखते ही बनती थी। समस्त धरा को ही अपना विहार स्थल समझते हैं। श्रावकों की स्थान-स्थान पर अभ्यर्चना-अर्चना से तो आप सर्वथा निरपेक्ष हैं। जहाँ जो F1 है, जैसा है ठीक है-पर पुष्प तो अपना सौरभ साथ ही रखता है। जैन तो 1 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 328 मायाााा . 545454545454545454545454545454545454545454545 - - 95555555555555555 1
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy