SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 559595959555555555959595 वा 卐 साधना के कठिन मार्ग का सतत् अभ्यास किया और विक्रम संवत् 2000 में , : TE कोटा (राजस्थान) में मुनि श्री विमलसागर नाम से अपने पूज्य गुरुवर आचार्य श्री विजयसागरजी महाराज से मुनि दीक्षा धारण कर देश-संयम की सीमा को लांघ कर महाव्रती या श्रमण की संज्ञा प्राप्त की। श्रमण शब्द की व्यत्पत्ति 51 पाणिनि के अनुसार "श्रम तपसि खेदे च" धातु से हई है, जिसका अर्थ हैतप करने वाला साधक । मुनि-दीक्षा साधना के विद्यालय में प्रथम प्रवेश है। सच्ची पढ़ाई तो यहीं से प्रारंभ होती है। सत्यान्वेषी साधु को आत्मा का साक्षात्कार करके जीवन में आध्यात्मिक सौन्दर्य के नए-नए द्वार खोलने होते हैं। एक - आध्यात्मिक योद्धा की भाँति उसे पुरुषार्थ का धनुष लेकर, तप के बाण से कर्मों के दुर्भेद्य कवच का भेदन करना पड़ता है। स्वर्ण को स्वर्णत्व अग्नि की प्रखर लपटों में तपने पर ही प्राप्त होता है। उसी प्रकार आत्मा को भी परमात्मा पद की प्राप्ति तपस्या के द्वारा ही होती है। तपश्चरण की आध्यात्मिक अग्नि से तृप्त एवं परिपक्व होने पर ही साधना फलवती होती है। तप की महत्ता से परिचित पूज्य मुनिश्री ने भी इन्द्रिय दमन करने वाले दुर्धर तप को अपना कर तप के सोने में त्याग की सुगन्ध बसाने की कहावत चरितार्थ कर जन-जीवन पर अपनी एक अपूर्व छाप छोड़ी। आज का भौतिकवादी मानव जब नवीनतम - खोजों द्वारा भौतिक सुविधाएं जुटाने में लगा हुआ था, तब आप साधना का कठिन मार्ग अपना कर सच्चे साधक की भांति घोर परीपह सहन करते हुए सुखान्वेषण में निमग्न रहते थे। ___"पानी हिलता भला, जोगी चलता भला" उक्ति को चरितार्थ करते हुए आप जीवन भर सच्चे सुख का सन्देश लिए. भगीरथ की भांति अनेकों कष्टों को झेलते हुए भी ज्ञान-गंगा को जन-जन तक पहुँचाने का सतत प्रयास करते रहे। वर्षा-योग, विराम या विहार के रूप में कितने ही पुण्यवानों को आचार्यश्री का सानिध्य प्राप्त हुआ। सन्त का मन पर-पीड़ा से द्रवित हो उठता है। उसकी यही भावना रहती है कि पर-पीड़ा का किस प्रकार निवारण करूँ? दुःख-रूप संसार को उन्होंने काफी नजदीक से देखा था। अतः वे एक सच्चे हितैषी 51 की भाँति जन-जन को मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त करना चाहते थे। सिद्धवरकूट में श्री कीर्तिसागरजी महाराज को ऐलक-दीक्षा, भोपाल पंच-कल्याणक प्रतिष्ठा में श्री धर्मसागर जी महाराज को क्षल्लक दीक्षा उनकी इसी भावना की प्रतीक है। लश्कर में चौमासा करके आपने कई सामाजिक विवादों को निपटा कर प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 298
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy