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95595955555555555555555555 卐गये। "प्रभात उठ सामायिक के पश्चात् शेष पर्वत कूटों की वन्दना करके 卐 TE नीचे उतर कोठी में आये। दूसरे दिन धर्मोपदेश हुआ, फिर तीसरे दिन चतुर्दशी को दस बजे बाहर मनिजी का केश-लोंच हुआ।
उस समय पण्डित जयदेवजी और भगतजी कलकत्तावाले तथा पण्डित शिवजीराम पाठक राँची वाले आये थे। केश-लोंच के बाद व्याख्यान हए. फिर मुनि मुनीन्द्रसागरजी के भी केश-लोंच हुए। यहाँ श्रीशिखरजी में आठ दिन रहकर गिरीडीह चातुर्मास करने को चले गये।"
ब्रह्मचारी भगवानसागरजी छाणी महाराज के शिष्य थे। वे इस यात्रा में साथ ही थे। शिखरजी की यात्रा के बाद संघ का गिरीडीह में चातुर्मास + हुआ। सन् 1926 के उसी चार्तुमास में ब्रह्मचारीजी ने अपने गुरु की अब
तक की जीवनी लिखी और जनवरी 1927 में उसे प्रकाशित करके वितरित या करा दिया। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि "वीर" के उपसम्पादक बाबू 4 कामताप्रसादजी ने इस पुस्तिका के लिये सुन्दर प्रस्तावना लिखी। उनके
जैसे मनीषी की भूमिका सहित छपने से पुस्तक की प्रामाणिकता बढ़ी और । वह जैन इतिहास का एक अध्याय बन गई। "वीर" और बाबू कामताप्रसाद
दोनों ही समाज की कुरीतियों और ढकोसलों के खिलाफ कड़ी और बेबाक आलोचना के लिये प्रसिद्ध रहे हैं। उन्होंने उस समय अपनी लेखनी से छाणी महाराज के व्यक्तित्व का जो मूल्यांकन किया है वह उनके चरित्र की एक "वस्तु-परक व्याख्या" ही माननी पड़ेगी। गुरु के प्रति अंध श्रद्धा-भक्ति से प्रेरित अतिशयोक्ति वह नहीं है। वह एक आस्थावान साधक की निस्पृह और निरपेक्ष साधना का तटस्थ मूल्यांकन है, जो समय की कसौटी पर अंकित
___अपनी इस धारणा की पुष्टि में मैं बाबू कामताप्रसाद जी द्वारा 11 जनवरी -1 1927 को लिखी गई भूमिका में से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करने का लोभ संवरण LE नहीं कर पा रहा हूँ
___ "श्री शान्तिसागरजी महाराज के पवित्र जीवन से वैसे तो हम और भी 31 शिक्षाएँ ले सकते हैं, परन्तु उनमें चारित्रिक-दृढ़ता का जो एक गुण है, वह LE हमारे हृदय को विशेष रूप से अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। गृहस्थावस्था
से ही आप में एक अजीब ही दृढ़ता मालूम देती है। इसी दृढ़ता के बल F1 पर आप "अपने भाग्य के स्वयं विधाता" हैं। अपने ही दृढ़ निश्चय और उपायों 4132
प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
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