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वैराग्य की यह बल्लरी स्वाध्याय एवं ज्ञानार्जन के विविध साधन रूपी जल से परिसिंचित तथा तपश्चरण, संयम से पोषित होती हई वीतरागता - - के अंतिम चरण में प्रतिफलित हुई। - पूज्य महाराज जी ने एक वर्ष बाद
ही आदिनाथ भगवान् की साक्षी को, आचार्य मान मुनि दीक्षा ली। इस प्रकार LF स्वयंबुद्ध मुनि बनकर विलुप्त हो रही मुनि परंपरा को आपने पुरुज्जीवित F- किया। मुनि पद धारण कर आपने देश के विभिन्न स्थानों में बिहार कर जन
साधारण को आत्म साधना की ओर प्रेरित किया। आपके धर्मोपदेश से जैन धर्मानुयायियों की ही रुचि चारित्र में नहीं बढ़ी, अपितु सैकडों अन्य धर्मावलम्बियों ने भी मद्य, मांस, मधु तथा अन्य अभक्ष्य पदार्थों का त्याग किया। अनेक जमींदार, जागीरदारों ने अपने शासित प्रदेशों में दशहरा आदि के समय हिंसा को हमेशा के लिये बन्द कर दिया था। स्वयं भी सन्मार्ग के अनुयायी बने।
निःसन्देह यह सब अतिशय और प्रभाव आत्मशक्ति, त्याग, लोकैषणा के अभाव व जीवमात्र की कल्याण की भावना के बिना नहीं हो सकता। वैराग्य भावना से ओतप्रोत, लोकैषणा से रहित सांसारिक, सामाजिक किसी भी । आयोजन से परे कुछेक दिगम्बर साधु ही स्व पर कल्याण कर सकते हैं।'
- पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी (छाणी) इसी प्रकार के साधुओं में से थे। यह उनके जीवन इतिहास से प्रमाणित होता है। सिवाय आत्म चिंतन, धर्मोपदेश, प्राणिमात्र के कल्याण की उद्दाम भावना के अतिरिक्त वे किसी लौकिक कार्य में नहीं उलझे। निःसंदेह वे पर्यायान्तर में मोक्ष के अधिकारी हैं। ऐसे मुनिपुंगव का स्मरण कर उन्हें अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित कर स्वयं को धन्य मानता हूँ।
इन्दौर
धर्मचन्द शास्त्री, आयुर्वेदाचार्य
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प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ Pारा
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