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श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । ताराततिश्च पतिता सुरपुष्पवृष्टिर्याता दिवो हि शुशुभे तव वन्दनाय ॥९॥
अर्थ- हे भगवन् मुनिसुव्रतनाथ ! आपकी समीपता पाकर अशोक वृक्ष भी अत्यंत सुंदर, भयरहित और सदाके लिये सुखी होगया है। हे नाथ ! ताराओकी पंक्तिके समान जो आकाशसे देवोके द्वारा की हुई पुष्पवृष्टि पड रही है, वह भी ऐसी शोभायमान हो रही है, मानो आपकी वंदना करनेके लिये ही आरही हो।
दिव्यध्वनिहितकरो भवरोगहर्ता स्वमोक्षदो निरुपमः सुखशान्तिपुंजः । अन्तान्तको निखिलजीववचोऽनुरूपः भव्याल् नरामरगणांश्च सुखीकरोति॥१०॥
अर्थ- हे भगवन् ! आपकी दिव्यध्वनि सबका हित करनेवाली है, संसाररूपी रोगको नाश करनेवाली है, स्वर्ग मोक्षको देनेवाली है, उपमारहित है, सुख और शान्तिका पुंज है, अन्त अर्थात् मृत्युका भी अन्तक अर्थात् नाश करनेवाली है और समस्त जीवोंकी भापामय परिणत हो जाती है। हे नाथ ! ऐसी आपकी दिव्यधनि समस्त भव्यजीवोको तथा देव और मनुष्योको सदा सुखी करती है ।
हे शक्रपूज्य ! मुनिसुव्रत ! सुव्रतैः जातस्त्वकं च अवनत्रयपूजनीयः ।