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________________ ५६ श्रीचतुर्विशतिजिनस्तुति । अर्थ- हे भगवन् ! आपके अत्यंत विशुद्ध आत्मामें अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य और अनंत सुखकी प्राप्ति हुई है। हे प्रभो ! इमीलिये आप अनंतनाथ कहलाते हैं । अनन्तपर्याय चयस्य दृष्टा ज्ञाता प्रणेता भुवनेशपूज्य । अनन्तसौख्यस्य सदैव भोक्ता ह्यनन्तनाथश्च ततस्त्वमेव ॥४॥ अर्थ- हे तीनो लोकोके इन्द्रोंके द्वारा पूज्य भगवन् अनन्तनाथ ! आप अनंत पर्यायोके समूहको देखनेवाले है, जाननेवाले हैं और निरूपण करनेवाले हैं तथा सदाकाल अनंत सुखको भोगनेवाले हैं। हे देव ! इसीलिये आप अनंतनाथ कहलाते हैं। त्वत्पादमूले शरणागतेभ्यः । स्वनन्तसौख्यस्य शिवस्य मार्गः। त्वया प्रणीतः सुखशान्तिदात्रा। स्वनन्तनाथश्च ततस्त्वमेव ॥५॥ अर्थ--- हे भगवन् ! आप सुख और शान्तिको देनेवाले हैं, जो भव्य जीव आपके चरण कमलोंमें शरण आये हुए हैं उनके लिये आपने अनंत सुख देनेवाले मोक्षका मार्ग निरूपण किया है । हे नाथ ! इसलिये भी आप अनन्तनाथ कहलाते हैं। MN
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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