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________________ rrrrrr __४८ श्रीचतुर्विशतिजिनस्तुति । अर्थ- हे देव ! आप बीतगग हैं इसलिये स्तुति करनेसे तो आपको संतोप नहीं होता और निन्दा करनेसे आपको क्रोध नहीं होता । तथापि जो मुनिराज आपकी पूजा करते हैं ___ उनके लिये आप स्वर्ग मोक्ष अवश्य देदेते है । इच्छन्ति ये कौ तरितुं भवाब्धे स्तवेव चास्यं वर मंगलाब्यम् । अनन्यभावैरवलोकनीयं चैत्यं गृहं प्रत्यहमेवभव्यैः ॥४॥ अर्थ- हे भगवन् ! जो भव्य जीव इस पृथ्वीपर संमार रूपी समुद्रसे पार होना चाहते हैं 'उनको प्रतिदिन एकाग्र चित्तसे अनेक मंगलोंसे सुशोभित ऐसे आपके मुखका दर्शन करना चाहिये। इसीप्रकार आपकी प्रतिमाका दर्शन करना चाहिये, आपके चैत्यालयका दर्शन करना चाहिये । सावधकर्मापचितौ सुदाने दुधस्य सिंधौ च यथा विषस्य । बिन्दुः सुदाने यजने प्रवृत्ति कुयुः प्रमादं च ततो विहाय ॥५॥ अर्थ- हे प्रभो ! जिसप्रकार क्षीरमहासागरमें विपकी एक बूंदका कुछ असर नहीं होता उसी प्रकार आपकी पूजन करनेमें तथा मुनियोंको दान देनेमें यद्यपि सामग्री बनाने, रसोई
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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