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________________ श्री चतुर्विंशतिजिनस्तुति | अर्थ- - उन भगवान् पुप्पदन्तने क्षमा, तप, ध्यान आदि आत्मा के गुणरूपी श्रेष्ठ योद्धाओको साथ लेकर तथा समता और शान्त परिणामरूपी वज्रको हाथमें लेकर कर्मरूपी शत्रुओंका किला तोड दिया था और अत्यत सतुष्ट होकर अपने आत्मपद में लीन होगये थे । इमीलिये वे भगवान् मुनियोंके द्वारा भी वन्दना करने योग्य होगये हैं । नैकान्तदृष्ट्या नयशास्त्रसिद्धं सापेक्षवाग्भिर्ग्रथितं त्वदुक्तम् । मोक्षप्रदं निर्मलजीवतत्वं ३६ मोक्षार्थि भव्यैहृदि चिन्तनीयम् ||४|| अर्थ — हे भगवन् ! आपने जिस निर्मल जीवतत्वका निरूपण किया है वह एकांत दृष्टीसे एकांत नयशास्त्र से सिद्ध नहीं हो सकता । वह सापेक्ष वचनोसे गुथा हुआ है और इसी लिये वह मोक्षतत्वको प्राप्त करनेवाला है । अतएव मोक्षको इच्छा करनेवाले भव्य जीवोको वह निर्मल जीवतत्व अपने हृदय में सदा चितवन करने योग्य है । त्वमेव देवः भुवनेशपूज्यः निर्दोष सर्वज्ञ जनेषु मुख्यः । हितोपदेशी भवतापहर्ता जगद्धितैषी सकलैश्च वंद्यः ॥५॥
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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