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श्री चतुर्विंशतिजिनस्तुति ।
अर्थ - जो जीव मोहरूपी तीव्र मद्यको पीकर मोहित हो गये थे और अपने आत्मधर्म में अत्यंत मंद होगये थे, हे नाथ, वे सब जीव आपने ही यथार्थ धर्ममें स्थापन किये हैं ।
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कुटुम्बवर्गों धनरत्नराज्यं संसारबंधस्य च मुख्यहेतुः तेनैव दुःखं भवति प्रकर्षं भव्यस्य चैवं कथितस्त्वयैव ॥४॥
अर्थ - कुटुबके सब लोक, धन, रत्न, राज्य, आदि संपदाएं सब संसार के बंधन के मुख्य कारण हैं और भव्य जीवों को इन्हीं से अत्यंत दुःख होता है, हे भगवन्, यह सच कथन आपने ही बतलाया है ।
त्वयैव दृष्टं परमार्थतत्वं तवैव तीर्थं परमं पवित्रम् | मनोहरा ते परमेव मूर्तिः
संसारमोहस्य जवेन हर्त्री ||५||
अर्थ —- हे भगवन् ! मोक्षरूप परमार्थ तत्व आपने ही देखा है, तथा आपका ही कहा हुआ वा किया हुआ तीर्थ परम पवित्र है । हे नाथ ! आपकी ही मूर्ति परम मनोहर है और संसार के मोहको बहुत शीघ्र नाश कर देती है।