SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीशान्तिसागरचरित्र | अर्थ — सरोवर के किनारे मनोहर पर्वतोंपर श्मशान भूमिमें और जिनमंदिरमें जप, तप और ध्यान करते हुए उन्होने वर्षायोग समाप्त किया । ततो चलत्पुरः स्वामी तोषयन् भव्यश्रावकान् । प्रसारयन् दयाधर्मं नामयन् नरनायकान् ||१५|| घनेरण्ये नदीतीरे व्याप्ते च पशुभिर्वने । अध्ययनं स्तवं ध्यानं कुर्वन् पाठं सुपुण्यदम् ||४६ भूरिराज्यं पुरं ग्राममुलंष्य शांतिसागरः । सिद्धक्षेत्रं सदापूतं प्राप्तः स्वर्णगिरिं विभुः ॥४७॥ ३६ अर्थ - तदनतर वे शांतिसागर स्वामी भव्यथावकोको संतुष्ट करते हुए, दयाधर्मको फैलाते हुए और अनेक राजाओंसे नमस्कार कराते हुए आगे चले । वे आचार्य घने वनमें नदीके किनारे और पशुओं से भरे हुए वनमें अध्ययन करते जाते थे, अरहंत देवकी स्तुति करते जाते थे, ध्यान करते जाते थे और पुण्य बढानेवाले पाठ करते जाते थे । इसप्रकार चलते हुए अनेक राज्योंको, नगरोंको और गांवोंका उल्लंघन कर वे पूज्य आचार्य सदा पवित्र ऐसे सोनागिर सिद्धक्षेत्रपर पहुंचे । वंदित्वा तच्छुभं क्षेत्रं निखिलांच जिनालयान् । चतुर्विंशतिशतेन्दे पट्पंचाशत्तमे शुभे ॥ ४८ ॥ मार्गशीर्ष शुभे माले पौर्णिमायां शुभे दिने । मोक्षं गते जिने वीरे चत्वारो मुनयस्तदा ||४९|| 1 1 1 1
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy