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________________ श्रीशान्तिसागरचरित्र । कारयन्मंगलं मागें प्राप्तवान बेलगांवकम् । तत्रोत्सवः कृतः सर्वैयद्धिर्मधुरं जनैः ।।७७॥ तपश्च विविधं कुर्वन् स्वात्मानं चिंतयन् तथा। धर्मप्रभावनां ध्यान दिनानि कतिचित्स्थितः ॥७८ अर्थ- संसारमें सुख नहीं है इस बातको वे आचार्य अपने शुद्ध आत्मासे ही दिखलाते थे, तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, मद और कामको छोडो; ये आत्माके शुत्रु हैं इस बातका उपदेश वे केवल अपनी शांतिसे ही देते थे। धर्मके लिये उन्होंने मार्यमें कितने ही मठ स्थापन कराये, कितनी ही स्वाध्यायशालाएं स्थापन कराई और कितने ही स्थानोंमें आनंद मंगल कराये । इसप्रकार चलते चलते वे वेलगांव पहुंचे। इससमय वहांके सब लोगोंने मधुर गीत गाते हुए, बहुत ही अच्छा उत्सव किया था। वे आचार्य अनेक प्रकारका तपश्चरण करते हुए, अपने आत्माका चितवन करते हुए, धर्मकी प्रभावना करते हुए और ध्यान करते हुए कुछ दिनतक वहां ठहरे। धर्मसुद्योतयन्मार्गे कुंभोजनगरं प्रति । अचलबोधयन्न् भव्यान शांतितोयं हि पाययन् ।। जयशवं प्रकुर्वद्धिर्मधुरं मंगलध्वनिम् । राजलोकै मजावगैः श्रीपाटीलजनैवरैः ॥८॥ मुनिभिः श्रावकैभव्यैर्नगरं प्राविशत्समम् ।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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