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________________ १८ श्रीशान्तिसागरचरित्र । है उसपर भी पापोंके नाश करनेवाले भगवान् जिनेंद्रदेवके अनेक भवन बने हुए हैं, उनमें बडी बडी प्रतिमाएं विराजमान हैं । उमी पर्वतपर एक गुफामें मुनिराज भद्रबाहुके पुण्य उत्पन्न करनेवाले चरण विराजमान हैं। आचार्य शांतिसागरने उन सबकी वंदना कर महा पुण्य उपार्जन किया। ततोऽचलन्सूडबिद्रीयात्राथं करुणालयः । ईर्यासमितिसंशुध्द्या रक्षन जीवान बहूस्तदा ॥६९॥ ___ अर्थ- तदनंतर अत्यंत दयालु वे. आचार्य ईर्यापथ समितिकी परम शुद्धिसे अनेक जीवोंकी रक्षा करते हुए मूडविद्रीकी यात्राको चले। विशालैः सुन्दरै रम्यैः शृंगध्वजविराजितैः । सदनप्रतिमापूतैः सिद्धांतग्रंथशोभितैः ॥७॥ जिनालयैरनेकैश्च भूषितं जनरंजकम् । शनैः शनैश्च संप्राप्तो मूडबिद्रयाख्यपत्तनम् ॥७१॥ अर्थ- वे मुनिराज धीरे धीरे चलकर मूडबिद्रीनगरमें पहुंचे। वह मूडबिद्रीनगर लोगोंको प्रसन्न करनेवाला है और अनेक जिनभवनोंसे सुशोभित है। वे जिनभवन भी बहुव विशाल हैं, अत्यंत सुन्दर हैं, अत्यंत मनोहर हैं, शिखर और धजाओंसे सुशोभित हैं, उत्तमोत्तम रत्नोंकी प्रतिमाओंसे पवित्र हैं और सिद्धांत ग्रंथोंसे सुशोभित हैं।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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