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________________ श्रीशान्तिसागरचरित्र। पुरे वने सदा ध्यानं कुर्वन संबोधयम् जनान् । द्यातयन् जिनधर्मं हि गच्छतिस्म पुरः शनैः॥३०॥ __ अर्थ-वे क्षुल्लक नगर वा वनमें ध्यान करते हुए, लोगोंको उपदेश देते हुए और जिनधर्मकी प्रभावना करते हुए धीरे धीरे आगे चले। संघस्य पुण्यतः सोयं कोगनोलिपुरं गतः । संयमान्यं वरं क्षेत्रंजनान् ज्ञात्वा च धार्मिकान्।३१ वर्षायोगं च कृतवान् कदाचिन्नगरे कचित् । गुहायामाश्रमे ध्यानं कुर्वन् संबोधयन स्थितः॥३२ अर्थ- संघके पुण्यकर्मके उदयसे वे क्षुल्लक कोगनोलि गांवमें गये । उस गांवमें संयमी लोग रहते थे और धर्मात्मा रहते थे इसप्रकारके उस क्षेत्रको उत्तम समझकर उन क्षुल्लकने वहीं पर वर्षायोग धारण किया। उससमय वे कभी तो नगरमें बैठकर ध्यान करते थे, कभी किसी गुफामें बैठकर ध्यान करते थे और कभी वसतिकामें बैठकर ध्यान करते थे। इसप्रकार ध्यान करते हुए और भव्यजीवोंको श्रेष्ठ उपदेश देते हुए वे वहां रहने लगे। कदाचिद्ध्यानमारूढं ज्ञात्वा नागेन केनचित् । आगत्य प्रभुदेहस्य सर्वांगस्पर्शनं कृतम् ॥३३॥ स्वजन्म सफलं मत्वा स्पृष्टा तं च पुनःपुनः । नत्वा स्मृत्वा निजस्थानं गतः सर्पः प्रसन्नधीः॥३४
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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