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________________ ८६ श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । रूप दिव्यसभा शोभायमान हो रही थी और दिव्यध्वनिरूप आपका श्रेष्ठ उपदेश शोभायमान हो रहा था। आसन्नभव्या भुवि यत्र यत्र प्रभो विहारोपि बभूव तत्र । शान्तिप्रदं ते वचनं निशम्य ___भव्याश्च लमा शिवमोक्षमागें ॥७॥ अर्थ- हे प्रभो ! इस पृथ्वीपर जहां जहां निकट भव्य जीव रहते थे वहींपर आपका विहार हुआ था। तथा अत्यंत शांति देनेवाली आपकी 'दिव्यध्वनिको सुनकर भव्यजीव कल्याण देनेवाले मोक्षमार्गमें लगगये थे । केचित्लुभव्याश्च समं त्वयैव मोक्षंगता देव निहत्य कर्म । त्वन्मार्गलमा विषयाद्विरक्ताः सुश्रावका वा मुनयो बभूवुः ॥८॥ अर्थ- हे देव ! आपकी दिव्यध्वनिको सुनकर कितने ही भव्यजीव तो अपने सब कर्मोको नाश कर आपके ही साथ मोक्ष चलेगये थे तथा कितने ही आपके कहे हुए मोक्षमार्गमें लगगये थे, कितने ही विषयोसे विरक्त होगये थे, कितने ही ' श्रावक होगये थे और कितने ही भव्यजीव मुनि होगये थे।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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