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________________ अनुकृतिय है। हिन्दी में गम और महावीर के अतिरिक्त शायद ही कोई ऐमा चरित्र हो जिमके गुण बार-बार नायकों के गण वनकर कवियों व लेखकों की वाणी में उतरे हों। श्रमण जानियों ने हमेशा ही बोलचाल की भाषा को प्राथमिकता दी। केवल मंस्कृत में ही ग्रंथ रचना करना जैन कवियों को कभी प्रिय नहीं रहा । म्वयं महावीर ने उम भाषा का प्रयोग किया जो जनमाघारण की भाषा थी। जहां मंस्कृत में देवमेन मुरि, शाकटायन, जिनमेन, हरिपेण, धनंजय और हरिचन्द्र जैसे महाकवियों ने जन आगम को गीनिकर और ग्मरंजिन किया, वहाँ यापनीय आचार्य उद्योतन मृरि और पुष्पदन्त नया भट्टारक धर्मभूषण, क्षेमेन्द्र कीर्ति, धनपाल आदि ने प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं को अपनी पवित्र आराधना मे ममृद्ध किया। हिन्दी के आदि जनन में नि:संदेह जैनाचार्यों का बहुत ममर्थ हाथ रहा । यहां तक कि हिन्दी का विकाम, भाषा प्रवाह, मोड भी जनाचार्यों ने बहुत कुछ निर्धारित किया । मनिशीलविजव ने "तीर्थमाला" नाम से एक पयर्टन ग्रंथ मन् १८८३ में हिन्दी मे लिखा । परन्तु आज भी उमका उल्लेख हिन्दी माहित्य में नही मिलता। यह एक विचित्र विडम्बना है कि जो माहित्य रचना जैनाचार्यों ने की वह उच्चकोटि की होते हुए भी माहित्य में उचित स्थान व आदर न पा सकी । इसका कारण सम्भवतः उम युग का श्रमणों के प्रति विद्वेष था । परन्तु अब वह युग ममाप्त हो चुका है । हरिचन्द्र जमे महाकवि को भी जिन्हे महामहोपाध्याय दुर्गाप्रमाद ने माघ की कोटि का बताया मंस्कृत मे उक्त संकुचित भावना के कारण उचित स्थान न मिल सका। मानतुगाचार्य का अत्यन्त मधुर स्रोत जो भक्ति माहिन्य का एक अनूठा रत्न है आज तक अपना उचित स्थान किंचित दुगग्रहों के कारण न पा सका । काल के गर्भ में बसे वे वैमनस्य इतिहाम के तिमिर 80
SR No.010572
Book TitleVarddhaman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmal Kumar Jain
PublisherNirmalkumar Jain
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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