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________________ बनकर प्रकट होता है। उमक बाद वह पेड, पौधे आदि जीव वनकर प्रगट होता है । म नग्ह उमका विकास क्रम चल रहा है। मतलब यह है कि ये चग्ण हम्बय जीव के विकाम के। नीर्थकर जीव के विकाम के मिद्धान को प्रस्तुत करने हए बना रहे है कि एक स्थिति उमकी वह थी जब वह पन्थर के रूप में भी नहीं था; जब वह अदृश्य पदार्थ के रूप में था। यह समझना कि जीव गरीर में स्थित आत्मा को कहते है और गरीर इममे भिन्न है एक भल होगी। वास्तव में जब नक हम जीव रूप में अपन को अनभव करने रहेंगे नब तक गरीर में मर्वथा भिन्न गद्ध, वेतन किमी मना की कल्पना करना मन्य मे दूर जाने के ममान होगा। जनदर्शन दानिको की इम भल को नहीं दोहगना। उसके अनुमार जान के मायन ह कि जीव अपने को पदार्थ मे अलग एक मना के रूप में जानता और महमम करता जाय । जब वह उम स्थिति में होगा जहा मक्ष्म में महम कम पदार्थ भी उसे अपने में भिन्न नजर आने लगेगे और उनके बीच वह अपनी म्वतत्र मत्ता को जान लेगा वह क्षण उमके निर्वाण का होगा। उम क्षण जीव की दार्शनिक मन्य हो जायेगी और उमकी जगह हम में आत्मा प्रगट हो जायेगी। जीव के मायने हे आत्मा का वह विकृत रूप जो अपने को पदार्य मे भिन्न नही समझना । एकेन्द्रिय जीव अपने को पदार्थ में बिल्कुल भी भिन्न नही ममझना। दो इन्द्रिय जीव अपने को भिन्न ममझने लगता है । पर्चन्द्रिय जीव यानी मनग्य अपने कोपृथ्वी, जल, वनम्गनि आदि में नो भिन्न ममझता है परन्तु गरीर में भिन्न नही समझना। एम कारण वह जीव है । जब आत्म-ज्ञान द्वारा वह अपने को गरीर और उमके कर्म जाल मे मवंया भिन्न ममझ लेता है और उनका इनके प्रति मोह ट जाना ह नो जीव का अस्तित्व समाप्त हो जाना है। उमके ट्ट ही हममें नानमय आत्मा प्रगट हो जाती है। जब तक पदार्थों के प्रति किमी न किमी रूप में मोह बना रहेगा, चाहे पदार्थ कितना भी मक्ष्म हो, हममे जीव की मत्ता बनी रहेगी। जीव होना ही भवचक्र में बंधे रहना है। 66
SR No.010572
Book TitleVarddhaman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmal Kumar Jain
PublisherNirmalkumar Jain
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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