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________________ प्रकृति की विचित्र प्रयोगशाला-दुर्गुणों को कोमियागरी ज्यों-ज्यों हम जीवन के अनभव प्राप्त करने हैं एक विचित्र बात हम मवर्क माथ घटती है। हमाग लोगों में में विश्वाम खत्म होता जाना है। बचपन में माता-पिता की हर वान हमें देववाक्य लगनी थी। फिर गम्जनों के माथ ऐमा रहा। पर युवा होते-होते. अनुभवों के माथ अविश्वाम प्रकृति में बढना गया। प्रगामन में, व्यापार मे, मब जगह जहाँ भी मनप्य स्थित है, उमे जो अनुभव मिल रहे है वे मब अविश्वास जगा रहे हैं। यह अविश्वाम ही कारण है-व्यक्तियों के आइलण्ड बन जाने का,मोनाड्म (morads) वन जाने का । मब अलग-अलग होते जाने है, बन्द विडकियों वाले मकानों की तरह जिनके बीच कोई मंचार नहीं। इममे प्रत्येक मनुष्य दुम्वी है। कोई नहीं चाहता कि उमका जीवन अकेला पड जाय । मब चाहते है पूर्ण जीवन प्रवाह में एक होना, दमके म्पन्दन, अनुभव, अनभनियों में अपने को मनन् प्रेरित किये रखना। पर इसके लिये हमारे जीवन में विमर्जन की क्षमता होनी चाहिये, दार्शनिक मृत्यु को प्राप्त करने की तकनीक मालम होनी चाहिए। इसके लिये औरों पर विश्वाम होना जरूरी है। परन्तु जीवन-यात्रा में हम उपलब्धि हो रही है मनप्यों पर अविश्वाम की। फिर कमे हम अपने जीवन के अकेलेपन को दूर कर मकने है? न मही मोक्ष, जीवन को तो मनुष्य की तरह सुधार ले. एक दूमरे मे महयोग करके, एक दूसरे के प्रति उदारता, प्रेम, सहानुभूति, दया, क्षमा को मक्रिय रूप में अपने भीतर आवेगों की तरह महमूस करके । इममे जीवन निष्प्रयोजन नो नहीं होगा, रिक्त नो नही 50
SR No.010572
Book TitleVarddhaman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmal Kumar Jain
PublisherNirmalkumar Jain
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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