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________________ ८० | तीर्थंकर महावीर हुये उसने कहा-"हाय ! आज तो मुझे अपना शास्त्र भी धोखा दे गया। लक्षण, रेखायें और चिन्ह सव चक्रवर्ती के से हैं, पर सामने खड़ा है एक घमण । जिसके तन पर विस्तभर वस्त्र भी नहीं। क्या चक्रवर्ती भी भिक्षुक बनकर यों दर-दर भटकता है ? लगता है शास्त्र सब झूठे हैं, ऐसे झूठे शास्त्रों को तो गंगा में बहा देना चाहिए।" पुष्य इन्हीं निराशायुक्त विचारों के थपेड़ों में डगमगाता हुआ उठा, शास्त्रों की गठरी जलशरण करने जा रहा था कि एक दिव्यवाणी (देवेन्द्र द्वारा) उसके कानों से टकराई - पुष्य ! क्या तू पढ़-लिख कर भी मूर्ख ही रहा ? श्रमण है तो क्या इसकी अद्भुत कान्ति और तेज आँखों से नहीं दीख रहा है ? तू जिसे चक्रवर्ती न मानने की भूल कर रहा है, वह महापुरुष धर्म-चक्रवर्ती, सम्राटों का भी सम्राट् और असंख्य देवेन्द्रों का भी पूजनीय महाश्रमण तीर्थंकर महावीर है, आँखें खोलकर देख जरा !" पुप्य के अन्तश्चक्षु खुल गये। उसने देखा कि सचमुच यह भिक्षुक ही विश्व का सर्वोत्तम सत्पुरुष है। श्रद्धा और विनय के साथ मस्तक प्रभु के चरणों में झुक गया। महान् आश्रयदाता (गोशालक को शरणदान) भगवान महावीर का जीवन एक महावृक्ष की भांति सदा-सर्वदा सबके लिए आश्रयदाता रहा है। असहाय को सहाय देना और शरणागत की रक्षा करना; यह उनके क्षत्रिय स्वभाव का सहज संस्कार-जैसा प्रतीत होता है। महावृक्ष की छाया में साधु, सज्जन और दीन प्राणी भी शरण लेते हैं और चोर, दुष्ट एवं क्रूर हिंसक प्राणी भी। वृक्ष का धर्म आश्रय देना है, यदि दुष्ट उसका आश्रय पाकर भी अपनी दुष्टता न छोड़े तो इसमें वृक्ष का क्या दोष ? श्रमण महावीर के चरणों में अनेकों भव्य, सज्जन और सुशील प्राणियों ने आश्रय लेकर आत्म-कल्याण का अमरपथ प्राप्त किया, शूलपाणि यक्ष और चंडकौशिक नाग जैसे क्रूर एवं हिंसक प्राणियों ने भी आत्मबोध पाकर शान्ति का पथ अपनाया तो गोशालक और संगम जैसे दुष्ट एवं अभव्य प्राणियों ने आश्रय लेकर अग्नि की भांति अपने आश्रय-स्थल को ही नष्ट करने का विफल प्रयल भी किया। १ घटना वर्ष वि० पू० ५१०। -विषष्टि० १०१३
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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