SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ | तीर्थकर महावीर __'आग के सामने पानी की ही जीत होती है'-यही सोचकर शिष्य चुप रहा । सांयकालीन प्रतिक्रमण के समय उसने पुनः गुरुजी को उस बात की आलोचना करने की याद दिलाई । बस, गुरु जी के तो एड़ी से चोटी तक आग लग गई। क्रोधांध होकर अपना रजोहरण उठाया और उसे ही मारने दौड़े। बेचारा शिष्य घबराकर इधर-उधर हो गया, अन्धेरे में गुरुजी एक खंभे से टकरा गये, उनका सिर फट गया और वहीं गिर पड़े । अत्यन्त क्रोध दशा में मृत्यु होने पर वे ज्योतिषी देव बने और वहां से आयुष्य पूर्ण कर इसी कनकखल आश्रमपद में कुलपति का पुत्र हमा । कौशिक उसका नाम रखा गया। किन्तु स्वभाव अत्यन्त क्रोधी (चंड) होने के कारण सभी आश्रमवासी उसे चंडकौशिक नाम से पुकारने लगे। एक बार आश्रम के उद्यान में श्वेताम्बी के कुछ राजकुमार आये और वे मनचाहे फल तोड़ने लगे. चडकौशिक ने मना किया। राजकुमारों ने उसकी बात अनसुनी कर दी तब ऋद्ध होकर चण्डकौशिक हाथ में कुल्हाड़ा लेकर उन्हें मारने को दौड़ा। राजकुमार तेजी से भाग गये, चंडकोशिक उनका पीछा करता हुआ एक खड्डे में जा गिरा और उसी कुल्हाड़े से सिर में गहरी चोट लगी, वह वहीं पर समाप्त हो गया। वनखण्ड में अत्यन्त आसक्ति और क्रोधाविष्ट दशा में मृत्यु होने से चंडकौशिक दृष्टिविष सर्प बना। उसकी जहरीली फुकारों से समूचा आश्रमपद निर्जन और ऊजड़ प्रदेश बन गया था। उद्यान जलकर राख हो गया था। प्रारम्भ में जो अनेक मनुष्य इधर आये, दृष्टिविष सर्प की एक विषबुझी दृष्टि से ही काल-कवलित हो गये । जंगल में सर्वत्र आतंक छा गया, और तब से वह मार्ग सर्वथा जन-शून्य हो गया। बहुत समय बाद आज श्रमण महावीर उस पथ पर आये । चडकौशिक नाग को अपना दबा हुआ क्रोध निकालने का अवसर मिला, पर जब इस दिव्यपुरुप ने जहर के बदले उसे अमृतपान कराया तो उसकी बुद्धि चकित हो गई, क्रोध शान्त हुआ और चण्डकौशिक नाम सुनकर जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त किया। अपने पूर्व जीवन के इन दुर्दशापूर्ण रोमांचक चित्रों को देखकर उसकी अन्तश्चेतना जाग उठी। तीव्र क्रोध के कारण कितने-कितने कष्ट उठाये और कैसी दुर्गति हई, यह उसके समक्ष स्पष्ट हो गया । वह शान्त होकर बार बार प्रभु के चरणों में लिपट कर अपने अपराध के लिये क्षमायाचना करने लगा। दूसरे दिन अनेक ग्वाले कुतूहल वश उधर आये, दूर से वृक्षों पर चढ़कर देखा तो श्रमण महावीर स्थिर खड़े दिखाई दिये । उन्हें आश्चर्य हुआ-यह श्रमण अब तक
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy